पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८५

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मानसरोवर ड्रामेटिस्ट-मुमकिन ही नहीं। ऐसी रचनाओ के पुरस्कार की कल्पना करना ही उनका अनादर करना है। इनका पुरस्कार यदि कुछ है,। तो वह अपनी आत्मा का संतोष है, और वह संतोष आपके एक-एक शब्द से प्रकट होता है। सेठजी -आपने बिल्कुल सत्य कहा कि ऐसी रचनाओं का पुरस्कार अपनी आत्मा का संतोष है। यश तो बहुधा ऐसी रचनाओं को मिल जाता है, जो साहित्य के कलक हैं । आपसे ड्रामा ले लीजिए और आज ही पार्ट भी तक- सीम कर दीजिए। तीन महीने के अदर इसे खेल डालना होगा । मेज़ पर ड्रामे की हस्तलिपि पड़ी हुई थी। ड्रामेटिस्ट ने उसे उठा लिया। गुरुप्रसाद ने दीन नेत्रों से विनोद की ओर देखा, विनोद ने अमर की ओर, अमर ने रसिक की ओर ; पर शब्द किसी के मुह से न निकला । सेठ जी ने मानो सभी के मुह सी दिये हों । ड्रामेटिस्ट साहब किताब लेकर चल दिये। सेठजी ने मुस्किराकर कहा- हुजूर को थोड़ी-सी तकलीफ और करनी होगी । ड्रामा का रिहर्सल शुरू हो जायगा, तो आपको थोड़े दिनों कंपनी के साथ रहने का कष्ट उठाना पड़ेगा । हमारे ऐक्टर अधिकाश गुजराती हैं । वह हिंदी भाषा के पाव्दो का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते । कहीं-कहीं शब्दों पर अनावश्यक ज़ोर देते हैं। अपनी निगरानी से यह सारी बुराइयां दूर हो जायेंगी । ऐक्टरो ने यदि पार्ट अच्छा न किया, तो आपके सारे परिश्रम पर पानी पड़ जायगा । यह कहते हुए उसने लड़के को आवाज़ दी-बॉय ! आप लोगों के लिए सिगार लाओ। सिगार आ गया । सेठजी उठ खड़े हुए । यह मित्र-मडली के लिए बिदाई की सूचना थी। पांचों सजन भी उठे। सेठजी आगे-आगे द्वार तक पाये। फिर सबसे हाथ मिलाते हुए कहा-श्राज इस ग़रीब कपनी का तमाशा देख लीजिए । फिर यह संयोग न जाने कब प्राप्त हो । गुरुप्रसाद ने मानो किसी कब के नीचे से कहा-हो सका तो आ जाऊँगा। सड़क पर पाकर पांचो मित्र खड़े होकर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे । तब पांचो ही ज़ोर से कहकहा मारकर हँस पड़े। विनोद ने कहा-यह हम सब का गुरुघंटाल निकला।