पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९

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मानसरोवर

कोई खत आया, न मैंने कोई खत लिखा। शायद दुनिया का यही दस्तूर है। वर्षा के बाद वर्षा की हरियाली कितने दिनों रहती है। सयोग से मुझे इग्लैंड में विद्याभ्यास करने का अवसर मिल गया। वहाँ तीन साल लग गये। वहाँ से लौटा, तो एक कालेज का प्रिसिपल बना दिया गया । यह सिद्धि मेरे लिए बिलकुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दूर न उड़ी थी; कितु पद-लिप्सा अब किसी और भी ऊँची डाली पर आश्रय लेना चाहती थी। शिक्षा-मत्री से रब्त-जब्त पैदा किया। मत्री महोदय मुझपर कृपा रखते थे; मगर वास्तव में शिक्षा के मौलिक सिद्धातों का उन्हें ज्ञान न था। मुझे पाकर, उन्होंने सारा भार मेरे ऊपर डाल दिया । घोड़े पर सवार वह थे, लगाम मेरे हाथ में थी। फल यह हुआ कि उनके राजनैतिक विपक्षियो से मेरा विरोध हो गया। मुझपर जा-बेजा आक्रमण होने लगे। मै सिद्धात रूप से अनिवार्य शिक्षा का विरोधी हूँ। मेरा विचार है कि हर एक मनुष्य को उन विषयो मे ज्यादा स्वाधीनता होनी चाहिए, जिनका उनसे निज का सदध है। मेरा विचार है कि यूरोप मे अनिवार्य शिक्षा की ज़रूरत है, भारत में नहीं। भौ।तकता, पश्चिमी सभ्यता का मूल तत्त्व है। वहाँ किसी काम की प्ररणा, आर्थिक लाभ के आधार पर होती है। जिंदगी की ज़रूरते ज़्यादा इसलिए जीवन-सग्राम भी अधिक भीषण है। माता-पिता भोग के दास होकर बच्चो को जल्द से जल्द कुछ कमाने पर मजबूर करते हैं। इसकी जगह कि वह मद का त्याग करके एक शिलिंग रोज की बचत कर ले, वे अपने कमसिन बच्चे को एक शिलिंग की मजदूरी करने के लिए दबायेगे । भारतीय जीवन मे साविक सरलता है। हम उस वक्त तक अपने बच्चों से मजदूरी नहीं कराते, जब तक कि परिस्थिति में विवश न कर दे। दरिद्र से दरिद्र हिंदुस्तानी मजदूर भी शिक्षा के उपकारों का कायल है। उसके मन में यह अभिलाषा होती है कि मेरा बच्चा चार अक्षर पढ़ जाय। इसलिए नहीं कि उसे कोई अधिकार मिलेगा; बल्लि केवल इसलिए कि विद्या मानवी शील का एक शृंगार है। अगर यह जानकर भी वह अपने बच्चे को मदरसे नहीं भेजता, तो समझ लेना चाहिए कि वह मजबूर है । ऐसी दशा में उसपर कानून का प्रहार करना मेरी दृष्टि में न्याय-संगत नहीं। इसके सिवाय मेरे