पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९१

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९० . मानसरोवर उसने रुखाई से कहा-यह पूछकर क्या करोगे ?. झूठ तो नहीं कहती। बेवफा बहुत देखे । लेकिन तुम सबसे बढ़कर निकले । तुम्हारी आवाज़ सुन- कर जी मे तो पाया कि दुत्कार दूं लेकिन यह सोचकर दरवाज़ा खोल दिया कि अपने दरवाजे पर किसी को क्या जलील करूँ। मैंने कोट उतारकर खूटी पर लटका दिया, जूते भी उतार डाले और चारपाई पर लेटकर बोला-लेली, देखो, इतनी बेरहमी से न पेश आयो । मैं तो अपनी खताओ को खुद तस्लीम करता हूँ और इसी लिए अब तुमसे मुश्राफ़ी मांगने आया हूँ। जरा अपने नाजुक हाथो से एक पान तो खिला दो । सच कहना, तुम्हे मेरी याद काहे को आती होगी। कोई और यार मिल गया होगा। लैली पानदान खोलकर पान बनाने लगी कि एकाएक किसी ने किवाड़ खटखटाये । मैंने घबड़ाकर पूछा-यह कौन शैतान आ पहुँचा ? हसीना ने होठो पर उँगली रखते हुए कहा-यह मेरे शौहर हैं । तुम्हारी तरफ से जब निराश हो गई, तो मैंने इनके साथ निकाह कर लिया। मैंने त्यौरियां चढ़ाकर कहा-तो तुमने मुझसे पहले ही क्यों न बता दिया, मैं उलटे पांव लौट न जाता, यह नौबत क्यो आती। न-जाने कबकी यह कसर निकाली। 'मुझे क्या मालूम कि यह इतने जल्द प्रा पहुंचेंगे। रोज़ तो पहर रात गये आते थे । फिर तुम इतनी दूर से आये थे, तुम्हारी कुछ खातिर भी तो करनी थी। 'यह अच्छी ख़ातिर की । बताओ, अब मैं जाऊँ कहाँ ।' 'मेरी समझ में खुद कुछ नहीं आ रहा है। या अल्लाह ! किस अज़ाब में फंसी।। इतने में उन साहब ने फिर दरवाजा खटखटाया । ऐसा मालूम होता था कि किवाड़ तोड़ डालेगा। हसीना के चेहरे पर एक रङ्ग पाता था, एक रग- जाता था । बेचारी खड़ी कॉप रही थी। बस, ज़बान से यही निकलता था- या अल्लाह रहम कर ! ‘बाहर से आवाज़ आई-अरे तुम क्या सरेशाम से सो गई ! अभी तो 2