पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९३

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२ मानसरोवर ही में न होगा ; लो, सब जगह देख पायो। सुई तो है नहीं कि मैंने कहीं छिपा दी हो। वह शैतान इन चकमों मे न पाया । शायद पहले भी ऐसा ही चरका खा चुका था। कुंजियो का गुच्छा उठाकर सबसे पहले मेरी कोठरी के द्वार पर आया और उसके ताले को खोलने की कोशिश करने लगा। गुच्छे में उस ताले की कु जी न थी। बोला-इस कोठरी की कुजी कहाँ है ? हसीना ने बनावटी ताज्जुब से कहा-अरे, तो क्या उसमे कोई छिपा बैठा है ? वह तो लकड़ियों से भरी पड़ी है। 'तुम कुजी दे दो न ।' 'तुम भी कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगते हो। अँधेरे में कोई साप-बिच्छू निकल आये तो। ना भैया, मैं उसकी कु जी न दूंगी।' 'बला से सांप निकल आयेगा । अच्छा ही हो, निकल आये । इस बेह- याई की जिंदगी से तो मौत ही अच्छी ।' हसीना ने इधर-उधर तलाश करके कहा-न जाने उसकी कुजी कहाँ रख दी। ख़याल नहीं पाता। 'इस कोठरी में तो मैने और कभी ताला पड़ा नहीं देखा ।' 'मैं तो रोज़ लगाती है। शायद कभी लगाना भूल गई हूँ, तो नहीं कह सकती।' 'तो तुम कुजी न दोगी? 'कहती तो हूँ, इस वक्त नहीं मिल रही है।' 'कहे देता हूँ, कच्चा ही खा जाऊँगा।' अब तक तो मैं किसी तरह जब्त किये खड़ा रहा। बार-बार अपने ऊपर 'गुस्सा आ रहा था कि यहाँ क्यों आया । न जाने यह शैतान कैसे पेश आये। कहीं तैश में आकर मार ही न डाले । मेरे हाथ मे ती कोई छूरी भी नहीं। या खुदा! अब तू ही मालिक है । दम रोके हुए खड़ा था कि एक पल का भी मौका मिले, तो निकल भागू; लेकिन जब उस मरदूद ने किवाड़ों को ज़ोर से धमधमाना शुरू किया, तब तो रूह ही फना हो गई। इधर-उधर निगाह डाली कि किसी कोने में छिपने की जगह है, या नहीं। किवाड़ के +