पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९५

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९४ मानसरोवर उसने उनका हाथ पकड़कर एक झटका दिया, तो आप धम से नीचे आ रहे । उनका ठाट देखकर अब इसमें कोई शुबहा न रहा कि वह मेरे मालिक हैं । उनकी सूरत देखकर इस वक्त तरस के साथ हँसी भी आती थी! 'तू कौन है बे" 'जी, मैं मेरा मकान, यह आदमी झूठा है, यह मेरा नौकर नहीं है।' 'तू यहाँ क्या करने आया था ? 'मुझे यही बदमाश ( मेरी तरफ देखकर ) धोखा देकर लाया था।' 'यह क्यों नहीं कहता कि मज़े उड़ाने आया था । दूसरों पर इल्जाम रख- कर अपनी जान बचाना चाहता है सुअर ? ले तू भी क्या समझेगा कि किसके पाले पड़ा था ।" यह कहकर उसने उसी तेज़ छुरे से उन साहब की नाक काट ली । मैं मौका पाकर बेतहाशा भागा लेकिन हाय हाय की आवाज़ मेरे कानो मे श्रा रही थी। इसके बाद उन दोनों में कैसी छनी, हसीना के सिर पर क्या श्राफत आई, इसकी मुझे कुछ खबर नहीं। मैं तब से बीसों गर सदर आ चुका हूँ ; पर उधर भूलकर भी नहीं गया। यह पत्थर फेकनेवाले हज़रत वही हैं, जिनकी नाक कटी थी। आज न जाने कहाँ से दिखाई पड़ गये और मेरी शामत आई कि उन्हें सलाम कर बैठा। आपने उनकी नाक की तरफ शायद ख़याल नहीं किया। मुझे अब ख़याल आया कि उस आदमी की नाक कुछ चिपटी थी । बोला- हाँ, नाक कुछ चिपटी तो थी। मगर अापने उस ग़रीब को बुरा चरका दिया। 'और करता ही क्या ? 'श्राप दोनों मिलकर उस आदमी को क्या न दबा लेते ? 'जरूर दबा लेते; मगर चोर का दिल अाधा होता है। उस वक्त अपनी-अपनी पड़ी थी कि मुकाबला करने की सूझती। कहीं उस रमझल्ले में धर लिया जाता, तो श्राबरू अलग जाती और नौकरी से अलग हाथ धोता। मगर अब इस आदमी से होशियार रहना पड़ेगा ।' इतने में चौक आ गया, और हम दोनों ने अपनी-अपनी राह ली। .