पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९९

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१०० मानसरोवर एक वरदान मांगा था। देवी ने वरदानो का भंडार ही मुझे सौंप दिया। पर आज मुझे देवी के दर्शन हों, तो मै उनसे कहूँ, तुम अपने सारे वरदान' ले लो । मैं इनमें से एक भी नहीं चाहती। मैं फिर वही दिन देखना चाहती हूँ, जब हृदय में प्रेम की अभिलाषा थी, तुमने सब कुछ देकर मुझे उस अतुल सुख से वंचित कर दिया, जो अभिलापा में था। मैं अबकी देवी से वह दिन दिखाने की प्रार्थना करूँ, जब मै किसी निर्जन जलतट और सघन वन मे अपने प्रियतम को हूँढ़ती फिरूं । नदी की लहरों से कहूँ, मेरे प्रियतम को तुमने देखा है ? वृक्षों से पूछू, मेरे प्रियतम कहाँ गये । क्या वह सुख मुझे कभी प्राप्त न होगा ! उसी समय मद, शीतल पवन चलने लगा। मैं खिड़की के बाहर सिर निकाले खड़ी थी। पवन के झोंके से मेरे केश की लटे निखरने लगीं । मुझे ऐसा आभास हुअा, मानो मेरे प्रियतम वायु के इन उच्छ्वासों मे है । फिर मैंने आकाश की ओर देखा। चाँद की किरणे चांदी के जग- मगाते तारों की भांति अखिों से आंखमिचौनी-सी खेल रही थीं। आँख बद करते समय सामने आ जाती ; पर अखेि खोलते ही अदृश्य हो जाती थीं। मुझे उस समय ऐसा आभास हुआ कि मेरे प्रियतम उन्हीं जगमगाते तारों पर बैठे आकाश से उतर रहे हैं। उसी समय किसी ने गाया : अनोखे-से नेही के त्याग, निराले पीड़ा के ससार ! कहाँ होते हो अतर्धान, लुटा करके सोने-सा प्यार ! 'लुटा करके सोने-सा प्यार', यह पद मेरे मर्मस्थल को तीर की भांति छेदता हुआ कहाँ चला गया, नहीं जानती। मेरे रोये खड़े हो गये । आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई । ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई मेरे प्रियतम को मेरे हृदय से निकाले लिये जाता है। मैं जोर से चिल्ला पड़ी। उसी समय पतिदेव की नींद टूट गई। वह मेरे पास आकर बोले-क्या अभी तुम चिल्लाई थीं ? अरे ! तुम तो रो रही हो ? क्या बात है ? कोई स्वप्न तो नहीं देखा? मैंने सिसकते हुए कहा-रोऊँ न, तो क्या है ?