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मानसरोवर


का केन्द्र थी। उस दुखिया के उद्यान में यही एक पौधा बच रहा था। उसे वह हृदय- रक्त से सीच-बीचकर पाल रही थी। उसके बसन्त का सुनहरा स्वप्न हो उसका जीवन था-उसमें कोपलें निकलेगो, फूल खिलेंगे, फल लगेंगे, चिड़ियाँ उसकी डालियों पर बैठकर अपने सुहाने राग गायेंगी ; किन्तु आज निष्ठुर नियति ने उस जीवन-सूत्र को उखाड़कर फेंक दिया । और अब उसके जीवन का कोई आधार न था। वह विन्दु ही मिट गया था, जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर एकत्र हो जाती थीं।

दिल को दोनों हाथों से थामे, मैंने जजीर खटखटाई। गोपा एक लालटेन लिये निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नये आनन्द को झलक देखी।

मेरी शोल - मुद्रा देखकर उसने मातृवत्-प्रेम से मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली --- आज तो तुम्हें सारे दिन रोते ही कटा। अर्थी के साथ बहुत --- से आदमी रहे होंगे! मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्नी का अन्तिम दर्शन कर लें। लेकिन, मैंने सोचा-जब सुन्नी ही न रही, तो उसको लाश में क्या रखा है। न गई।

मैं विस्मय से गोपा का मुंह देखने लगा। तो इसे यह शोक-समाचार मिल चुका है। फिर भी यह शांति ! और यह अविचल धैर्य ! गोला --- अच्छा किया, न गई, रोना ही तो था।

'हां, और क्या होती तो यहाँ भी लेकिन तुमसे सच कहती हूँ, दिल से नहीं रोई। न जाने कैसे आंसू निकल आये। मुझे तो सुन्नी की मौत से प्रसन्नता हुई। दुखिया अपनी 'मान-मर्यादा' लिये संसार से विदा हो गई, नरी तो न जाने क्या-क्या देखना परता , इसलिए और भी प्रसन्न हूँ कि उसने अपनी आन निभा दी। स्त्री को जीवन में प्यार न मिले, तो उसका अन्त हो जाना ही अच्छा। तुमने सुन्नी की मुद्रा देखी थी, लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था --- मुस्करा रही है। मेरी सुन्नी सचमुच देवी थी। भैया, आक्ष्मी इसलिए थोड़े ही जीना चाहता है कि रोता रहे। जब मालूम हो गया कि जीवन में दुख के सिवा और कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्या करे ? किसलिए जिये ? खाने और सोने और मर जाने के लिए ? यह मैं नहीं कहती कि मुझे सुन्नी की याद न आयगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी नहीं ; लेकिन वह शोक के आंसू न होंगे, हर्ष के आँसू होंगे। बहादुर बेटे को मां उसकी वोरगति पर प्रसन्न होती है। मुन्नी को मौत में क्या कुछ कम गौरव है ? मैं आँसू बहाकर उस गौरव का अनादर कैसे करूँ ? वह जानती है, और चाहे सारा संसार उसकी निन्दा करे, उसकी