दिखाते। मुझे भोजन में कुछ स्वाद न मिला। यह भेद मेरे ध्यान को सम्पूर्ण रूप से
अपनी ओर खींचे हुए था।
गाई, आई, हम दोनों सवार हुए। खानसामों ने ईश्वरी को सलाम किया। मेरी और देखा भी नहीं।
ईश्वरी ने कहा -- तमीजदार हैं ये सब ! एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढङ्ग नहीं।
मैंने खट्टे मन से कहा --- इसी तरह भार तुम अपने नौकरों को भी आठ आने रोज़ इनाम दिया करो तो शायद इससे ज्यादा तमोजदार हो जाय।
तो क्या तुम सकते हो, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते हैं।'
'जी नहीं, कदापि नहीं। तमीज़ और अदर तो इनके रक्त में मिल गया है।' गाड़ी चली। डाक थी। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रुकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोला। मैं तुरन्त चिल्ला उठा --- दूसरा दरजा है-सेकेण्ड क्लास है।
उस मुसाफिर ने डच्चे के अन्दर आकर मेरी और एक विचित्र उपेक्षा की दृष्टि से देखकर कहा-जी हाँ, सेवक भी इतना समझता है, और बोचवाले बर्थ पर बैठ गया। मुझे कितनी लज्जा आई, कह नहीं सकता।
भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुँचे। स्टेशन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खड़े थे। दो भद्र पुरुष थे। पांच बेगार। बेगारों ने हमारा लोज उठाया। दोनों भद्र पुरुष पोछे-पीछे चले। एक मुसलमान था, रियासत अली; दूसरा ब्राह्मण था, रामहरख। दोनों ने मेरी ओर अपरिचित नेत्रों से देखा, मानों कह रहे हैं, तुम कौवे होकर इस के साथ कैसे ?
रियासत अली ने ईश्वरी से पूछा --- यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं ?
ईश्वरी ने जवाब दिया --- साथ पढ़ते भी हैं, और साथ रहते भी हैं। यों कहिए कि आप हो की बदौलत मैं इलाहावाद पड़ा हुआ हूँ, नहीं कब का लखनऊ चला आया होता। अवको में इन्हे घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे मगर मैंने इन्कारो जवान दिलवा दिये। आखिरी तार तो अर्जेन्ट था, जिसकी 'फ़ीस चार आने प्रति शब्द है; पर यहां से भी उसका जवाब इन्कारी हो गया।