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नशा


शनों सजनों ने मेरी और चकित नेत्रों से देखा। आतकित हो जाने की चेष्टा करते हुए जान पड़े।

रियासत अली ने अर्द्धशका के स्वर में कहा लेकिन आप बड़े सादे लिबास में रहते हैं।

ईश्वरी ने शंका निवारण को --- महात्मा गांधी के भक्त है साहब! खद्दर के - सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुगने सारे कपड़े जला डाले। यों कहो कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत है। पर आपको सूरत देखो तो मालूम होता है, अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं!

रामहरख बोले --- अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम देखने में आता है। कोई भाप ही नहीं सकता।

रियासत अली ने समर्थन किया --- आपने महाराजा चांगली को देखा होता तो दांतों उँगली दबाते। एक गाढ़े को मिर्जई और चमरौधे जूते पहने बाजारों में धूमा करते थे। सुनते है, एक बार बेगार में पड़ गये थे और उन्हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया।

मैं मन में कटा जा रहा था ; पर न जाने क्या बात थी कि यह सफ़ेद झठ उस भक्त मुझे हास्यास्पद न जान पड़ा। उसके प्रत्येक वाक्य के साथ मानों में उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था।

मैं शहसवार नहीं हूँ। हाँ, लड़कपन में कई बार लद्द, घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो कला-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गई। सवार तो हुआ , पर योटियाँ काप रही थी। मैंने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई दिईश्वरी ने घोड़े को तेज न लिया, बन्ना शायद मैं हाथ-पाय तुझ्याकर लौटर।। सम्भव है, ईश्वरी ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।

( ३ )

ईश्वरी का घर क्या था, किला था। इमामबाड़े का-सा फाटक, द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ, नौकरों का कोई हिसाब नहीं, एक हाथी बँधा हुआ। वरी ने अपने पिता, चावा, ताल आदि सबसे मेरा परिचय कगया, और उसी अतिशयोक्ति के साथ। ऐसी हवा गाँधी कि कुछ न पूछिए। नौकर चार ही नहीं, घर के लोग भी मेरा