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मानसरोवर


सम्मान करने लगे। देहात के जमींदार, लाखों का मुनाफा , मगर पुलिस कॉन्स्टेबिल को भी अफसर समझनेवाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे। अब जरा एकान्त हुआ, तो मैंने ईश्वरी से कहा --- तुम बड़े शतान हो यार, मेरी मिट्टो क्यों पलीद कर रहे हो ?

ईश्वरी ने सुदृढ़ मुरकान के साथ कहा --- इन गधों के सामने यही चाल जारी थी। वरना सीधे मुंह बोलते भी नहीं।

ज़रा देर बाद एक नाई हमारे पांव दाने आया। कुँवर लोग स्टेशन से आये हैं, थर गये होंगे। ईश्वरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा --- पहले कुँवर साहब के पाँव दवा।

मैं चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पांव दवाये हों। मैं इसे अमोरों के चोचले, रईसों का गधापन और बड़े आदमियों की मुधमरदो और आने क्या-क्या कहकर ईश्वरी का परिहार किया करता और आज मैं पौतों का रईस बनने का स्वांग भर रहा था !

इतने में दस बज गये। पुरानी सभ्यता के लोग थे। नई रोशनी अभी केवल पहाड़ की चोटी तक पहुंच पाई थी। अन्दर से भोजन का बुलावा आया। हम स्नान करने चले। मैं हमेशा अपनी धोती खुद छाँट लिया करता हूँ; मगर यहाँ मैंने ईश्वरी की ही भांति अपनो धोती भी छोड़ थी । अपने हाथों अपनी धोती छाँटते बड़ी शर्म आ रही थी। अन्दर भोजन करने चले। होस्टल में जूते पहने मेज़ पर जा बटते थे। • यहाँ पाँव धोना आवश्यक था। कहार पानी लिये खड़ा था। ईश्वरी ने पाँव बढ़ा दिये। कहार ने उसके पांव धोये। मैंने भी पाँव बढ़ा दिये। कहार ने मेरे पाँव भी धोये। मेरा वह विचार न जाने कहाँ चला गया था।'

( ४)

सोचा था, वहाँ देहात में एकाग्र होकर खूब पढेगे ; पर यहाँ सारा दिन सैर-सपाटे में कट जाता था। कहीं नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं ; कहीं मछलियों या चिड़ियों का शिकार खेल रहे हैं, कहीं पहलवानों की कुश्ती देख रहे हैं, कही शतरज पर जमे हैं। ईश्वरी खूप अण्डे मंगवाता और कमरे में 'स्टोव' पर आमलेट बनते। नौकरों का एक जत्था हमेशा घेरे रहता। अपने हाथ पाव के हिलाने को कोई जरूरत -नहीं। केवल जान हिला देना काशो है। नहाने बैठे तो आदमी नहलाने को