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नशा


हाजिर, लेटे तो दो आदमी पङ्खा मलने को खड़े। मैं महात्मा गांधी का कुँवर चेला मशहूर था भीतर से बाहर तक मेरी धाक था। नाश्ते में जरा भी देर न होने पाये, कहों कुंघर साहब नाराज़ न हो जायें, बिछावन ठीक समय पर ला जाय, कुँवर साहब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्वरी से भी ज्यादा नाजुकदिमाय बन गया था, या बनने पर मजबूर किया गया था। ईश्वरी अपने हाथ से बिस्तर बिछा ले , लेकिन कुवर मेहमान अपने हाथों कैसे अपना बिछावन विछा सकते हैं। उनकी महा- नता में बट्टा लग जायगा।

एक दिन सचमुच यही बात हो गई। ईश्वरी घर में थे। शायद अपनी माता से कुछ बात-चीत करने में देर हो गई। यहाँ दस बज गये। मेरी आखें नींद से झपक रही थी। मगर बिस्तर कैसे लगाऊँ ? कुँबर जो ठहरा। कोई साढ़े ग्यारह बजे महरा भाया। बड़ा मुंह-लगा नौकर था। घर के धन्धों में मेरा बिस्तर लगाने को उसे सुधि ही न रही। अब जो याद आई, तो यागा हुआ आया। मैंने ऐसो डाँट पताई लि उसने भी याद किया होगा।

ईश्वरी मेरी डांट सुनकर बाहर निकल आया और बोला --- तुमने बहुत अच्छा किया। यह सव हरामखोर इसी व्यवहार के योग्य है।

इसी तरह ईश्वरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गई। मगर लैम्प न जला। लैम्प मेज पर रखा हुआ था। दियासलाई भी वही थी , लेकिन ईश्वरी खुद कभी लैम्प नहीं जलाता। फिर कुँवर साइप कसे जलायें ? में झुंझला रहा था समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उघर लगा हुआ था, पर लैम्म नदारद देवयोग से उसी वक्त मुन्शी रियासत अली आ निकले। में उन्हों पर उबल पक्षा, ऐसी फटकार बताई कि वेचारा उल्लू हो गया --- तुम लोगो को इतनी फिट भी नहीं कि लैम्प तो जलवा दो। मालूम नहीं, ऐसे कामचोर आदमियों का यहां केसे गुज़र होता है। मेरे यहाँ घण्टे भर निर्वाह न हो। रियासत अली ने कापते हुए हाथों से लेम्पलला दिया।

वहाँ एक ठाकुर अनवर जाया करता। कुछ मनचला आक्ष्मी था, महात्मा गांधी का परम भक्त। मुझे महात्माजी का चेला समझाकर मेरा बड़ा लिहान करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देखकर आया और हाथ बांधकर बोला- सरकार तो गधो बार के चेले हैं न ? लोग कहत हैं कि यहाँ सुराज हो जायगा तो जमीदार न रहेंगे।