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मानसरोवर


छाया में रामप्यारी भाध घण्टे तक बैठी अपनी आत्मा को तृप्त करती रही। प्रतिक्षण उसके हृदय पर ममत्व का नशा-सा छाया जा रहा था। जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के संस्कार बदल गये थे, मानों किसी ने उस पर मन्त्र डाल दिया हो

उसी समय द्वार पर किसी ने आवाज़ दी। उसने तुरन्त भण्डारे का द्वार बन्द किया और जाकर सदर दरवाज़ा खोल दिया। देखा तो पड़ोसिन झुनिया खड़ी है और एक रुपया उधार मांग रही है।

रामप्यारी ने रुखाई से कहा --- अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया- कर्म में सब खरच हो गया।

झुनिया चकरा गई। चौधरी के घर में इस समय एक रुपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी। जिसके यहाँ सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब कुछ क्रिया-धर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे, आश्चर्य न होता। प्याची तो अपने सरल स्वभाव के लिए गांव में मशहूर थी। अक्सर शिवक्षास की आंखें बचाकर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुएँ दे दिया करती थी। अभी कल हो उसने जानकी को सेर-भर दृध दिया। यहाँ तक कि अपने गहने तक मांगे है देशी थी। कृपण शिवदास के घर में ऐसी सखरच बह का आना गाँववाले अपने सौभाग्य की बात समझा थे।

झुनिया ने चकित होकर कहा --- ऐसा न हो जीजी, बड़े गाढे में पड़कर आई हूँ, नहीं तुम जानती हो, मेरो आदत ऐसी नहीं है। बाकी का एक रुपया देना है। प्यादा द्वार पर खड़ा चक-मक रहा है। रुपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले। मैं आज के आठ दिन आकर दे जाऊँगी। गांव में और कौन घर है, जहाँ माँगने जाऊ ?

प्यारी टस से मस न हुई।

उसके जाते हो प्यारी सौद के , लिए रसोई-पानी का इन्तजाम करने लगी। पहले चावल-दाल बिनना अपाद लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था। कुछ देर दोनों बहनों में माव-झाव होती, तब शिवदास आकर कहते क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटे-मोटे टिकड़ लगाकर रख देती, मानों बैलों का रातिब हो। आज प्यारी तन-मन से रसोई के प्रबन्ध में लगी हुई है। अब वह घर को स्वामिनी है।