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स्वामिनी


तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा करकट पड़ा हुआ है। बुढ़ऊ दिन-भर मक्खो मारा करते हैं, इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें। अब क्या इनसे इतना भी न होगा ? द्वार ऐसा चिकना चाहिए कि देखकर भादमी का मन प्रसन्न हो जाय। यह नहीं कि पकाई भाने लगे। अभी कह दूं, तो तिनक उठेंगे। अच्छा, यह मुन्नी नींद से अलग क्यों खड़ी है?

उसने मुन्नी के पास जाकर नाद में झांका। दुर्गन्ध आ रही थी । ठोक ! मालूम होता है, महोनों से पानी हो नहीं बदला गया। इस तरह तो गाय रह चुकी। अपना पेट भर लिया, छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब ? हाँ, दूध सबको अच्छा लगता है। दादा द्वार पर बठे चिलम पी रहे हैं, मगर इतना नहीं होता कि चार घड़ा पानी नांद में डाल दें। मजूर रखा है, वह भी तोन को ही का। खाने को डेढ़ से काम फरते नानी मरतो है। आज आते हैं तो पूछती हूँ, नांद में पानी क्यों नहीं बदला। रहना हो, रहे, या जाय। आदमी बहुत मिलेंगे। चारों ओर तो लोग मारे-मारे फिर रहे हैं।

आखिर उससे न रहा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली।

शिवदास ने पुकारा --- पानी क्या होगा बहू ? इसमें पानी भरा हुआ है।

प्यारी ने कहा --- नाद का पानी सड़ गया है। मुन्नी भूसे में मुंह नहीं डालती। देखते नहीं हो, कोस-भर पर खड़ी है।

शिवदास मार्मिक भाव से मुस्कराये और आकर बह के हाथ से घड़ा ले लिया।

( ३ )

कई महीने बीत गये। प्यारी के अधिकार में आते ही उस घर में जैसे वसन्त आ गया। भोतर-बाहर जहाँ देखिए, किसो निपुण प्रान्धक के इस्त-कौशल, सुविचार और सुरुचि के चिह दौलते थे।' प्यारी ने गृहयन्त्र को ऐसी चाभी कस दो थी कि समी पुरजे ठोक-ठोक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, पी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद विश्राम लेतो है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में कुछ ऐसी बरकत आ गई है कि जो चीज़ मांगों, घर ही में निकल आती है। आदमो से लेकर जानवर तक सभी स्वस्प दिखाई देते हैं। अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चोमड़े लपेटे धूम रहा है, किसी को गहने की पुन सवार है। हाँ, भार