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मानसरोवर


कोई रुग्ण और चिन्तित तथा मलिन वेष में है, तो वह प्यारी है। फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहाँ तक कि बूढे शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात-हे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों मे भी अब उतना अपनापन नहीं है।

प्रातःकाल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और धुन्नाई हुई बोली --- लेकर इसे भी भण्डारे में बन्द कर दे।

प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर में कहा --- कह तो दिया, हाथ में रुपये आने दे, अनवा दूंगी। अभी तो ऐसा घिस नहीं गया है कि आज हो उतारकर फेक दिया जाय।

दुलारी लड़ने को तैयार होकर आई थी। बोली --- तेरे हाथ में काहे को कभी रुपये आयेंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़-जोड़ रखने में मजा आता है न ?

प्यारी ने हँसकर कहा --- जोड़-जोड़ रखती हूँ, तो तेरे ही लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा अनन्त कब का टूटा

दुलारी --- तुम न खामो-पहनो, जस तो पाती हो। यहाँ खाने-पहनने के सिवा और क्या है ? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।

प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा --- रुपये न हों, तो कहाँ से लाऊँ ?

दुलारी ने उद्दण्डता के साथ कहा -मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ। इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटो- सरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हंसकर सहती थी। स्वामिनी का तो यह धर्म ही है कि सबको धाँस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो। स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी-किसी का असर न होता। उसकी सामिनी कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होतो थी। वह गृहस्थी को सचा- टिका है। सभी अपने-अपने दुःख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है वही होता है। इतना, उसे प्रसन्न करने के लिए काफ़ी था।