गाँव में प्यारी को सराहना होती थी। अभी उम्र हो क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाये देती है। कभी किसी से हसतो-बोलतो भी नहीं। जैसे कायापलट हो गई।
कई दिन बाद दुलारी के कड़े पनकर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दोह- दौड़ गई।
सन्ध्या हो गई थी। दुलारी और मथुरा हार से लोटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गई। चटपट कड़े पहने और दौड़ी हुई वरीठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगो। प्यारी वरीठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसको आँखें सजल हो गई। दुलारी उससे कुल तीन हौ साल तो छोटी है। पर दोनों में कितना अन्तर है। उसकी आँखें मानों उस दृश्य पर जम गई, दम्पति का वह सरल आनन्द, उनका प्रेमालिंगन, उनको मुग्च भुद्रा - प्यारी को टकटकी सी बँध गई, यहाँ तक कि दीपक के धुंधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नज़रों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन को एक लीला भाखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में भाने लगी।
सहसा शिवदास ने पुकारा --- बड़ी बहू ! एक पैसा दो। तमाखू मैंगवाऊँ।
प्यारी की समाधि टूट गई। आँसू पोछती हुई भण्डारे में पैसा लेने चली गई।
( ४ )
एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे सम्पन्न समझा जाये, और इस महत्त्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए कभी चैलों को नई गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बीमारों को दवा-दारू के लिए साये को जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरोत करने पर भी काम न चलता, तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज़ निकाल देती। और चीज़ एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खचों को टाल जाती; पर जहाँ इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गांव में हेठी हो गई, तो क्या बात रही लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारो के पास भी गहने थे। दो-एक चीतों, मथुरा के पास भी थी लेकिन प्यारी उनकी चीज़े न छूती। उनके खाने-पहनने के दिन है, वे इस मजाल में क्यों फँसे। -