पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१२४
मानसरोवर

दुलारी के लड़का हुआ, तो प्यारो ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया। शिवदास ने विरोध किया --- क्या फायदा ? जब भगवान् की दया से सगाई-न्याह के दिन आयेंगे, तो धूम-धाम कर लेना। प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता। बोली --- कैसी बात कहते हो दादा ! पहलौंठो लड़के लिए भी धूम-धाम न हुआ तो कब होगा ? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी। नाम पड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं मांगती। अपना सारा सरजाम कर लूंगी।

'गहनों के माथे जायगी, और क्या।' --- शिवदास ने चिन्तित होकर कहा- इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा। कितना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई किसी के नहीं होते। अपने पास दो चीज़ रहेंगी, तो सब मुंह नोहेंगे, नहीं कोई सोधे बात भी न करेगा।

प्यारी ने ऐस! मुँह बनाया, मानों वह ऐसो वूड़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली --- जो अपने हैं, वे बात भी न पूछे, तो भी आने ही रहते हैं। मेश धरम मेरे साथ है, उनका धाम उनके साथ है। मर जाऊँगी, तो क्या छाती पर लाद आऊंगी ?

धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया गया। बरही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ। लोग खा-पीकर चले गये, तो प्यारी दिन-भर की थकी-मांदी आंगन में एक टाट का टुकड़ा निछाकर कमर सोधी करने लगी। आँखें झपड़ गई। मथुरा उसो वक घर में आया। नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी। गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गई थी, मुँह भी उतर गया था। पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छाई हुई थी। मातृत्व के गर्व और आनन्द ने अंगों में सजीवनी-सी भर रखी थी। सौर के संयम और पौष्टिक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे आंगन में देखते हो समीप आ गया, और एक बार प्यारी की और ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुँह चूमने लगा।

आहट पाकर प्यारी की आँखें खुल गई। पर उसने नींद का बहाना किया और अधखुली आँखों से यह आनन्द कड़ा देखने लगी। माता और पिता दोनों बारी-बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे। कितना स्वर्गीय