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स्वामिनी


आनन्द था। प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनो को भूल गई। जैसे लगाम से मुखबध्द, बोझ से लदा हुआ, हांकनेवाले की चाबुक से पीड़ित, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवार सुनकर कनौतियां खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दची हुई हिनहिनाइट से उसका जवाब देता है कुछ वही दशा प्यारी की हुई। उसका मातृत्व जो पिंजरे में वन्द, मूग, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व को चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पख फड़फड़ाने लगा।

मथुरा ने कहा --- यह मेरा लड़का है।

दुलारी ने बालक को गोद में चिमटाकर कहा --- हाँ, है क्यों नहीं। तुम्हों ने तो नौ महीने पेट में रखा है ! सांसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।

मथुरा --- मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता । चेहरा-मोहरा, रग- रुप सब मेरा ही-सा है कि नहीं ?

दुलारी --- इससे क्या होता है। बोज बनिये के घर से आता है। खेत किमान का होता है। उपज बनिये को नहीं होती, किसान को होती है।

मथुरा --- बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जायगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा।

दुलारी --- मेरा लइका पढे-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पायेगा। तुम्हारी तरह दिन- भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन से कहना है, कल एक पालना बनवा दें।

मथुरा --- अब बहुत सवेरे न उठा करना और छाती फारकर काम भी न करना।

दुलारी --- यह महरानी जीने देगी?

मथुरा --- मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है। हमी लोगों के लिए तो मरती है। भैया होते, तो अब तक दो तीन बच्चों की मां हो गई होती।

प्यारी के कण्ठ में आसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह कांप उठो। अपना वचित जीवन उसे मरुस्थल सा लगा, जिसको सूबो रेत पर वह हरा-भरा आग लगाने को निष्फल चेष्टा कर रही थी।

सहसा शिवदास ने भीतर आकर कहा-बड़ी बहू, क्या सो गई। बाजेवालों को सभी परोसा नहीं मिला। क्या कह दूं ?