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मानसरोवर


तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे तीन साल भी खेती बन गई, तो सब कुछ हो जायगा।

मथुरा --- इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनो, तो अम क्या बन जायगी। इसी तरह एक दिन चल देंगे, मन-की-मन में रह जायगी। फिर अब पौरुख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं इस चक्को में जोतकर उनकी ज़िन्दगी नहीं खराब करना चाहता।

प्यारी ने आँखों में आंसू लाकर कहा --- भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए, अगर मेरी और से कोई बात हो तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूंगी।

मथुरा आद्रकण्ठ होका बोला --- भाभी, यह तुम क्या कहती हो, तुम्हारे ही सँभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल को चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिट्टी में मिला दिया, अपनी देह धुला कालो। मैं अन्धा नहीं हूँ। सय कुछ सममता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान् ने चाहा तो घर फिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बरावर खरच-बरच भेजते रहेंगे।

प्यारी ने कहा --- तो ऐसा ही है तो तुम चले जाव, बाल-बच्चों को कहा --- कहाँ बांधे फिरोगे?

दुलारी बोली --- यह कैसे हो सकता है बहन, यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़ें- लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहां न लगेगा। दौड़-दौड़ घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगो। परदेश में अकेले जितना खरच होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

प्यारी बोली --- तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगी ? मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनन्द उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बन्धन रहा तो जाने से फायदा हो क्या? बोली --- बहन, तुम चलती तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का सारा कारो- बार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ-न-कुछ देख-भाल करतो ही रहोगी।

प्रस्थान के तिथि के एक दिन पहले हो रामप्यारी ने रात-मर जागकर हलुवा और पूनियाँ पकाई। जब से इस घर में आई, कभी एक दिन के लिए भी अकेले रहने का अवसर नहीं पाया। दोनों बहनें सदेव साथ रही। आज उस भयंकर