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स्वामिनी


फिर भी अलग ही रहेगा। बच्चे नये-नये कुरते पहने, नवाब भने घूम रहे थे। प्यारी उन्हें प्यार करने के लिए गोद में लेना चाहती, तो रोने का-सा मुँह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे अवसर पर बहुधा अपने बच्चे भी निठुर हो जाते हैं।

दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गई। लड़के पहले हो से उस पर जा बैठे। गांव के कितने स्त्री-पुरुष मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर एकान्त में गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेरी खोज-खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेरा ससार में कौन है; लेकिन इस भम्सड़ मे उसको इन बातों मौका न मिला। मधुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी रह गई ! वह इतनी विह्वल थी कि गांव के बाहर तक पहुंचाने की भो उसे सुधि न रहो।

( ६ )

कई दिन तक प्यारी मूछित-सी पड़ी रही। न घर से निकली, न चूल्हा जलाया, न हाथ मुंह धोया। उसका हलवाहा जो बार-बार आकर कहता -- 'मालकिन, उठो, मुंह-हाथ धोओ, कुछ खाओ-पियो। कल तक इस तरह पड़ी रहोगी ?' इस तरह की तसाली गांव की और स्त्रियाँ भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार की या का भाव छिपा हुआ जान पड़ता था। जोखू के स्वर में सच्ची सहानुभूति झलकती थी। जोखू कामचोर मातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे वावर दाटती रहती थी। दो-एक बार उसे निकाल भी चुकी थी पर मथुग के आग्रह से फिर रख लिया था। आज भी मौख की सहानुभूति-भरी माते सुनकर प्यारो झुमलाती, यह काम करने क्यों नहीं जाता, यहाँ मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है , मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे इस समय सहानुभूति की भूख थी। फल क कांटेदार वृक्ष से भी मिले, तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाता है ?

धीरे धोरे क्षोभ का वेग कम हुमा। जीवन के व्यापार होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो; पर प्यारी का गर्व यों ढोल बजाकर अपनी पराजय स्वीकार न कर सकता था। सारे काम पूर्ववत् चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी-पत्रो न भेजने से उसके अभिमान को और भी उत्तेजना मिली। वह समझता है, मैं उसके पासरे बैठी हूँ