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मानसरोवर

कुएं पर दो स्त्रियां पानी भरने आई थीं। इनमें बातें हो रही थीं।

'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं है।'

'हम लोगों को माराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।'

'हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ हो तो हैं।'

'लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम ? रोटी-कपड़ा नहीं पातो ? दस-पाँच रुपये भी छौन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडिया कैसी होती हैं ?'

'मत जलाओ, दीदी ! छिन-भर आराम करने को जो तरसकर रह जाता है। इतना काम तो किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कही आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पर किसी का मुंह हो सोधा नहीं होता।

दोनों पानी भरकर चली गई तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएं के जगत के पास आई। बेमिक चले गये थे। ठाकुर भी दरवाजा बन्द कर अन्दर आंगन में सोने जा रहे थे। गगी ने क्षणिक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो सान हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानता के साथ और समझ-बूझकर न गया होगा। गंगी दबे पाँव कुएं के जगत पर चढ़ी। विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।

उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रिआयत को रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अन्त में देवताभों को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएं में डाल दिया।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा भी आवाज़ न हुई। अंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएं के मुंह तक आ पहुंचा। कोई बक्ष शहोर पहच्वान भी इतनी तेजी से उसे न खींच सकता था।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे, कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाना खुल गया। शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।