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घरजमाई


अन्धकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली माँ से बात तक न को, कभी उसके पास गया तक नहीं। एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया।

आप ने बार-बार बुलाया; पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में न गया। जिस दिन उसके पिता के देहान्त की सूचना मिलो, उसे एक प्रकार का इमिय हर्ष हुआ। उसकी भाँखों से आंसू की एक बूंद भी न लाई।

इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ स्नेह का आनन्द मिला। उसको सास ने ऋषि-वरदान की भांति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया। मरुभूमि में हरियाली तत्पन्न हो गई। सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन को सारो आकांक्षाएं पूरी हो गई। सास कहती --- बेटा, तुम इस पर को अपना ही समझो, तुम्ही मेरी भों के तारे हो। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था, सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं। वाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से को आयशद को कूड़ा करके, रुपयों की थैलो लिये हुए फिर आ गया। अब उसका दना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी सम्पत्ति सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसको याद न आती, मानों वह उसके जीवन का कोई भीषण काड था, जिसे भूल जाना ही उपके लिए अच्छा था। यह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसका मनोयोग, उसका परिश्रम कर गांव के लोग दौती उंगली दबाते थे। उसके ससुर का भाग बखानते जिसे ऐसा दामाद मिल गया, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुमाते गरे, उसका मान-सम्मान घटता गया। पहले देवता था, फिर घर का आदमी, अन्त में घर का दास हो गया। रोटियों में भी आधा पड़ गई। अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत न होती। लेकिन जब वह देखता, और लोग मूछों पर, ताव दे रहे हैं, केवल मैं ही दध को मश्मी बना दिया गया है, तो उसके अन्तस्तल से एक लम्बो, ठढो आह निकल आतो अभी उसको उन कुल पच्चीस हो साल की तो थी। इतनी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी ! और तो और, उसको स्त्री ने भो अखि फेर ली ! यह उस विपत्ति का सबसे कूर दृश्य था।