जानते हैं, जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम-भर होती रहेगी । यह नहीं सोचते
कि पहले और बात थी, अप और बात है। बहू हो पहले ससुराल जाती है तो उसका
कितना महातम होता है। उसने डोलो से उत्तरते ही पाजे बजते हैं, गाँव-महल्ले की
औरत उसका मुंह देखने आती है और रुपये देती हैं। महानों उसे घर-भर से अच्छा-
खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता ; लेकिन छ
महीनों के बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर-भर की लौंडी हो जाती है।
उनके घर में मेरी भी तो वही गति होती। फिर काहे का रोना। जो यह हो कि
मैं तो काम करता है, तो तुम्हारी भूल है, सजूर को और बात है। इसे आदमी
डाँटता भी है, मारता भी है, स्व बाहता है, रखता है, जब चाहता है, निकाल देता
है। कसकर काम लेता है। यह नहीं कि जब जी में आया, पछ काम किया, जब जो
में आया, परकर सो रहे।
( ४ )
हरिधन अभी पड़ा अंदर-ही-अदर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले --- भैया, उठो, तीसरा पहर ढल गया, कम तक सोते रहोगे ? सारा खेत पड़ा हुआ है।
हरिधन चट उठ बैठा और तीन स्वर में बोला --- क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है ?
दोनों साले हका-बक्का हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँधे हातिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो जाय, यह उनको चौंका देने के लिए काफी था। कुछ जवाब न सूझा।
हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धका और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढग से बोला --- मेरे भी बाल है। अन्धा नहीं हूँ, न महरा ही हूँ। छाती फादकर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ, ऐसे गधे कहीं और होंगे।
अब बड़े साले भी गर्म पड़े --- तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है।
अबकी हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी।
बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा --- अगर तुम यह चाही कि जन्म भर पाहुने घने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहे, तो यह हमारे यस की बात नहीं है।