हरिधन ने आँखें निकालकर कहा --- क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ?
बड़े --- यह कौन कहता है ?
हरिधन --- तो तुम्हारे घर की यही नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखों मारा जाय ?
बड़े --- तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर हाल देता ?
हरिधन ने ओंठ चबाकर कहा --- मैं खुद खाने नहीं गया ! कहते तुम्हें लाज नहीं आती?
'नहीं आई थी बहन तुम्हें बुलाने ?'
हरिधन की आँखों में खून उतर आया, दाँत पोसकर रह गया। छोटे साले ने कहा --- अम्मा भो तो आई थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं है तो क्या करती।
सास भीतर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोली --- कितना कह कर हार गई, कोई उठे न तो मैं क्या करूं।
हरिधन ने विष खुन और आग से भरे हुए स्वर में कहा --- मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूँ। मैं कुत्ता हूँ कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रूखी रोटी- का एक टुकड़ा फंछ दो?
बुढ़िया ने ऐठकर कहा --- तो क्या तुम लड़कों को बराबरी करोगे ? हरिधन पेरास्त हो गया ! बुढ़िया ने एक ही वाप्रहार में उपका काम तमाम कर दिया। उसको तनी हुई भवे ढोलो पड़ गई, आंखों को आग बुझ गई, फड़कते हुए नथने शांत हो गये। किसी आहत मनुष्य को भांति वह ज़मीन पर गिर पड़ा। 'क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?' यह वाक्य एक लम्बे माके की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था --- न हृदय का अन्त था, न उस भाले का।
( ५ )
सारे घर ने खाया पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर हार गये। हरिधन न उठा। वहीं द्वार पर एक -टाट पड़ा था। उसे उठाकर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ रहा।
रात भीग चुकी थी। अनन्त आकाश में उज्ज्वल तारे बालकों की भत कोड़