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पूस की रात


रात बाकी है ! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जायेंगे तम कहीं सबेस होगा। अभी पहर से ऊपर रात है। हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर भामों का एक बाग था। पतझड़ शुरू हो गई थी। बाग में पत्तियों का ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियां बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ रात को कोई मुझे पत्तियां बटोरते देखे तो समझे कोई भूत है। कौन जाने कोई जानवर ही छिपा बैठा हो ; मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिये और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलाता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ़ चला। जबरा ने उसे आते देखा, तो पास आया और दुम हिलाने लगा।

हल्कू ने कहा --- अब तो नहीं रहा जाता जबरू! चलो, बगीचे में पत्तियां बटोरकर तापें। टोटे हो जायगे, तो फिर आकर सोयेंगे। अभी तो रात बहुत है।

जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट को ओर आगे-आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अन्धकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से बोस को बूंदें टप-टप नीचे टपक रही-थीं।

एकाएक एक-झोंका मेंहदी के फूलों की खुशबू लिये हुए भाया।

हल्कू ने कहा --- कैसी अच्छी महक, आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी कुछ सुगन्ध आ रही है।

जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। उसे चिचोड़ रहा था।

हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियां बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का एक ढेर लग गया। हाध ठिठुर जाते थे। नगे पांव पले जाते थे। - और वह पत्तियों का पहाद खवा कर रहा था। इसी अलाव में पह ठण्ड को जलाकर भस्म कर देगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसको लौ ऊपरवाले वृक्ष की, पत्तियों को इन छूकर भागने लगो। उस अस्पिर प्रकाश में क्योचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे मानों उस अथाइ अन्धकार को अपने सिरों पर संभाले हुए हो। अन्धकार के उस अनन्त सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।