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पूस की रात

उसने दिल में कहा --- नहीं, अबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं मा सकता । नौच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोका हुआ !

उसने जोर से आवाज लगाई --- जबरा, जबरा।

जबरा भूकता रहा। उसके पास न भाया।

फिर खेत के चरे आने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना सहर भा रहा था। कैसा ददाया हुआ मैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असूक भान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर से आवाज़ लगाई --- लिहो-लिहो ! लिहो !!

जबरा फिर भूक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसो अच्छी खेती थी , पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किये डालते हैं।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला; पर एकाएक हवा का ऐसा ठण्डा, चुमनेवाला, बिच्छु के डंक का-सा मौका लगा कि वह फिर दुमते हुए अलाव के पास भा बैठा और राख को इरेदकर अपनी ठण्डो देह को गर्माने लगा।

जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किये डालत भों और हाकू गर्म राख के पास शांत ठा, हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों को भौति उसे चारों तरफ से पकड़ रखा था।

उसो राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़कर सो गया।

सवेरे जब उनको नीद शुलो, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी । और मुनो कह रही थौ-क्या आज स्रोते ही रहोगे ? तुम यहां लाकर रम गये और उधर सारस खेत चौपट हो गया।

हल्कू ने उठकर कहा --- क्या त खेत से होकर भा रही है ?

मुन्नी बोली --- हाँ, सारे खेत का सत्यानास हो गया। भला ऐसा भी कोई सौता है। तुम्हारे यहां मया डालने से क्या हुआ ?

हल्कू ने बहाना किया --- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत को पदी है। पेट में ऐसा दरद हुभा, ऐसा दरद हुमा कि मैं हो जानता हूँ।