मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरों की आहट मिली और अबकी टार्च के तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर कुतूहल से पूछा––तुम कहाँ गये थे जी? घण्टों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है! चिराग क्यों नहीं जले?
मैंने बहाना किया––क्या जाने, मेरे सिर में दर्द था, दूकान से आकर लेटा, तो नींद आ गई।
'और सोये तो घोड़ा बेचकर, मुर्दों से शर्त लगाकर!'
'हाँ यार, नींद आ गई।'
'मगर घर में चिराग़ तो जलना चाहिए था। या, उसका retrenchment कर दिया?'
'आज घर में लोग व्रत से हैं। न हाथ खाली होगा।'
'ख़ैर चलो, कहीं झाँकी देखने चलते हो? सेठ घूरेलाल के मन्दिर में ऐसी झाँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। अशोक के स्तम्भों में लाल, हरी, नीली बत्तियों की अनोखी बहार है। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौवारा लगाया है, कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा तो चोला मस्त हो गया। सीधे तुम्हारे पास दौड़ा आ रहा हूँ। बहुत झाँकियाँ देखी होंगी तुमने; लेकिन यह और ही चीज़ है। आलम फटा पड़ता है। सुनते हैं, दिल्ली से कोई चतुर कारीगर आया है। उसी की यह करामात है।'
मैंने उदासीन भाव से कहा––मेरी तो जाने की इच्छा नहीं हैं भाई! सिर में ज़ोर का दर्द है।
'तब तो ज़रूर चलो। दर्द भाग न जाय तो कहना।'
'तुम तो यार, बहुत दिक़ करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले; लेकिन तुम सिर पर सवार ही हो गये। कह दिया––मैं न जाऊँगा।'
'और मैंने कह दिया––मैं ज़रूर ले जाऊँगा।'
मुझ पर विजय पाने का मेरे मित्रों को बहुत आसान नुस्खा याद है। यों मैं हाथा-पाई, धींगा-मुस्ती, धौल-धप्पा में किसी से पीछे रहनेवाला नहीं हूँ; लेकिन