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गुल्ली-डण्डा


कि तरह डगमगा रहा है। और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने को सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो ज़रा-सी ; पर उसमें दुनिया भर को मिठाइयों को मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है।

मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, लांबा, बन्दरों की-सी लम्बी-लम्बी पतली-पतलो उँगलियाँ, बन्दरों हो की-सी चपलता, वही झलाहट। गुल्ली कैसो हो हो, उस पर इस तरह लपता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मां-बाप थे या नहीं, कहा रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुरी-क्लब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह मा जाय, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उपका दोरकर स्वागत करते थे और उसने अपना गोइयां बना लेते थे।

एक दिन हम और गया दो ही खेल रहे थे। वह पा रहा था, मैं पद रहा था मगर कुछ विचित्र वात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते हैं, पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए वह सब चालें चली, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य है। लेकिन गया अपना दाव लिये वगैर मेरा पिण्ड न छोड़ता था।

मैं घर को ओर भागा। अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ।

गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और उडा तानकर बोला --- मेरा दाँव देखर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर अनके, पदने को बेर क्यों भागे जावे हो ?

'तुम दिन-भर पक्षाओं तो मैं दिन-भर पादता रहूँ ?'

'हाँ, तुम्हें दिन-भर पादना पड़ेगा।'

'न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ ?'

'हां, मेरा दाव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।'

'तुम्हारा गुलाम हूँ ?'

'हा, मेरे गुलाम हो।'

'मैं घर जाता हूँ, देखू, मेरा क्या कर लेते हो।'

'घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लयो है ? दाँव दिया है, दांव लैंगे।'

'अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।'

'वह तो पेट में चला गया।'

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