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गुल्ली-डण्डा


ऊँचा उठ गया हूँ। बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेगे। उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्धा हो रही थी। मानों कह रहे थे-तुम भागवान हो भाई, जाओ, हमें तो इसो उजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

बीस साल गुजर गये। मैंने इंजीनियरो पास की और सो जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहुंचा और डाकबंगले में ठहरा। उस स्थान को देखते हो इतनी मधुर बाल स्मृतियां हृदय में जाग उठी कि मैंने छहो उठाई और करने की सैर करने निकला। आँखें किसी प्यासे पधिक को भांति जवान के उन क्रीड़ा-स्थलों को देख ने के लिए व्याकुल हो रही थी ; पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परि- चित न था। जहां खंडहर था, वहीं पक्के मकान खड़े थे। जहाँ नगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक सुन्दर क्योचा था। स्थान को कायापलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भो न सकता। बचपन को सञ्चित और अमर स्मृतियां बहिँ खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधौर हो रही थी। मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जो होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गई । मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।

सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्लो-डण्डा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिलकुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफ- सर हूँ, साइवी ठाठ में, रोब और अधिकार के आवरण में।

जाकर एक लड़के से पूछा --- क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है ?

एक लड़के ने गुल्लो-डण्डा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा --- कौन गया गया चमार !

मैंने यों ही कहा --- हाँ-हाँ वहो गयानाम का कोई आदमी है तो। शायद वही हो।

'हाँ, है तो।'

'ज़रा उसे बुला ला सकते हो ?'

लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिये आता दिखाई दिया। मैं दूर हो से पहचान गया। उसको ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ , पर कुछ सोचकर रह गया।

बोला --- कहो गया, मुझे पहचानते हो?