पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/१६२

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मैंने कुछ उदास होकर कहा --– लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डण्डा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न ?

गया ने पछताते हुए कहा --- वह लड़कपन था साकार, उसकी याद न दिलाओ।

'वाह ! वह मेरे वाल-जोवन को सबसे रसोलो याद है। तुम्हारे उस डण्डे में जो रस था, वह न तो अब आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में। कुछ ऐसो मिठास थो उसमें कि आज तक उससे मन मोठा होता रहता है।'

इतनी देर में हम वस्ती से कोई तीन मोल निकल आये है। चारों तरफ सनाटा है। पश्चिम और कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहाँ आकर हम किसो समय कमल-पुष्प तोड़ ले जाते थे और उनके झुमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ को सन्ध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपकर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्लो-डण्डा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुलो रखकर उछाली । गुल्लो गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, ज से मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वहो गया है, जिसके हार्थों में गुल्लो जैसे आप-हो-आप जाकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसको हथेलियों में हो पहुँचतो थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नई गुल्लो, पुरानो गुल्लो, छोटी गुल्लो, बड़ो गुल्लो, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, जो गुलियों को खींच लेता हो, लेकिन आज गुल्लो को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धांधलियां कर रहा था। अभ्यास को कसर बेईमानो से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भो डण्डा खेले . जाता था, हालांकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्लो पर मोछो चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़तो, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोषारा टाँड़ लगाता। गया यह सारी बेकायदगियाँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गये। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डण्डे में आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डण्डे से टकरा जाना , लेकिन आज वह गुल्ली डण्डे में लाती हो नहीं ! कभी दाइने जाती है, कभी वायें, कमो आगे, कभी पीछ।