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ज्योति

विधवा हो जाने के बाद वूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृति पति को कोसती-आप तो सिधार गये, मेरे लिए यह सारा जञ्जाल छोड़ गये। जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किस लिए किया। घर में भूनी भाँग नहीं, चले थे ब्याह करने। वह चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती। अहीरों में इसका रिवाज है। देखने-सुनने में भी बुरी न थी। दो-एक आदमी तैयार भी थे; लेकिन वूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी। और यह सारा क्रोध उतरता था बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था। सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी। ये दोनों अभी किसी लायक न थे। मगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती, किसी के सिर चैठ जातो। अब अगर वह कहीं बैठ जाय, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन लड़कों के होते इसे यह क्या सूझी। मोहन भरसक उसका भार हलका करने की चेष्टा करता। गार्यो-भैंसों की सानी-पानी, दुहना- मथना यह सा कर लेता , लेकिन बूटी का मुंह सोधा न होता था। वह रोज एक- न एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवा करना छोड़ दिया था। पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया। उसे यही गिला था। बेचारी का सर्वनाश हो कर दिया। न खाने का सुख मिला, न पहनने ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आई, मानों मट्ठी में पड़ गई। उसको वैधव्य साधना और अतृप्त भोग-लाल्सा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी। पति के पीछे और कुछ नहीं तो बुटी के पास चार-पाँच सौ के गहने थे; लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गये। उसी महल्ले में, उसको बिरादरी में, कितनी ही औरत थी, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, मांग में सेंदुर को मोटी-सी रेखा डालकर मानों उठे जलाया करती थीं , इसलिए जब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटो को खुशो होतो और यह सारी