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ज्योति


ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चारी लटकाकर ले जाव । ऊपर को तश्तरी में पान रखे जायेंगे। ज्योहो मोहन पाहर चला गया, उसने पानदान को मौज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारो काटी, पान को भीगोकर तश्तरी में रखा। तर एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बोहे के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं है कि इतनी बड़ो विभूति उसमें आकर गुम हो जाय। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें अपना मुंह देखा। ओठों पर लालो तो नहीं है मुंह लाल करने के लिए उसने थोड़े हो पान खाया है।

धनिया ने आकर कहा --- काकी, तनक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है ?

कल बूटी ने साफ़ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दो और सद्भाव से पूछा --- लड़के के दस्त बन्द हुए कि नहीं धनिया ?

धनिया ने उदास मन से कहा --- नहीं काकी, माज तो दिन भर दस्त आये। पाने दात भा रहे हैं।

'पानी भर ले तो चल जरा देखू, दाँत हो है कि और कुछ पखाद है। किसी को नज़र-वजर तो नहीं लगी।

'अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी को आँख फूटो हो।'

'चौचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।'

'जिसने घुमकारकर बुलाया, झट उसको गोद में चला जाता है । ऐसा हंसता है कि तुमसे क्या कहूँ।'

'कभी-कभी मां की नजर भी लग जाया करती है।'

'ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर कमायेगा।'

'यही तो तू समझती नहीं । नजर आप हो-आप लग जाती है।'

धनिया पानी लेकर आई तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।

'तू अकेली है। आजकल घर के काम-धन्धे में बड़ा अण्डस होता होगा।'

'नहीं अम्माँ, रुपिया आ जातो है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।'

बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिआ को उसने केवल तितकी समम रखा था।

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