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अलग्योझ


यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गई। रग्घू वहीं मूर्ति की तरह खड़ी रहा। आसमान की और टकटकी लगी थी और अखि से आँसू बह रहे थे।

पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गई कि अब अपने पौ बारह हैं। चटपट उठी, घर में झाड़ू लगाया, चूल्हा जलाया और कुएं से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गई थी।

गाँव में स्त्रियों के दो दल होते हैं -एक बहुओं का, दूसरा साँसों का। बहुएँ सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती हैं, सासें अपने दल में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुलिया को कुएँ पर दो-तीन बहुएँ मिल गई। एक ने पूछा-~-आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी।

मुलिया ने विजय के गर्व से कहा-इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई हैं, राज पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है। बहन, मैं उनका बुरा नहीं चाहती; लेकिन एक आदमी की कमाई में कहाँ तक बरकत होगी। मेरे भी तो यह खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर बाल-बच्चे हो जायें, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाय।

एक बहू---बुढ़िया यही चाहती हैं कि यह सब जन्म-भर लौंडो बनी रहें। मौटाझोटा खायँ और पड़ी रहें।

दूसरी बहू ---किस भरोसे पर कोई मरे। अपने लड़के तो बात नहीं पूछते, पराये लड़की का क्या भरोसा है कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है। अपनीस्थपनी मेहरियों का मुंह देखेंगे । पहले ही से फटकार देना अच्छा है। फिर तो कोई कलंक न होगा । मुलिया पानी लेकर गईं, खाना बनाया और रग्घू से बोली---जी, न्हा आओ, रौटी तैयार है।

रग्घू ने मानें सुना ही नही। सिर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ़ जाता रहा है।

मुलिया---क्या कहती हैं, कुछ सुनाई देता है? रोटी तैयार हैं, जाओं न्हा आओ।

रग्घू---सुन तो रहा हैं, क्या बहरा हैं ? रौटो तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है।