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मानसरोवर


पकड़े हुए अपने खीमे में गया और दोनों मेहमानो की दावत का प्रबन्ध करने लगा। और जब भोजन समाप्त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथारोनौकर कर सुनाई, जो आदि से अन्त तक अमिश्रित पशुता और बर्षरता के कृत्यां से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह इश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुद को कौन मुँह दिखायेगा। रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध गई।

अन्त में उसने हबीब से कहा --- मेरे जवान दोस्त, अब मेरा बेड़ा आप ही पार कगा सकते हैं। आपने मुझे गह दिखाई है तो मजिक पर पहुँचाइए। मेरी बाद- शाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तावाही के रास्ते पर लिए जाता था। मेरी आप से यही इल्तमास (प्रार्थना) है कि आप उसको वजारत कबूल करें। देखिए खुदा के लिए इन्कार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का न रहूँगा।

यज़दानी ने अरज़ को-हुजूर, इतनी कदरदानी फरमाते हैं, यह आपको इना- यत है। लेकिन अभी इस लड़के की उम्र ही क्या है। वजारत को खिदमत यह क्या अञ्जाम दे सकेगा ? अभी तो इसकी तालीम के दिन है।

इधर से इन्कार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यज़दानी इनकार तो कर रहे थे ; पर छाती फूली जाती थी, मूसा आग लेने गये थे, पैगम्बरी मिल गई। यहाँ मौत के मुंह में जा रहे थे, वजारत मिल गई, लेकिन यह श का भी थी कि ऐसे अस्थिर-चित्त आदमी का क्या ठिकाना ? आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार है, कल नाराज हो गये तो जान को खैरियत नहीं। उन्हें हमोज को लियाकत पर भरोसा तो था, फिर भी जी घरता था कि बिराने देश में न आने केपी पड़े, कैसी न पड़े। दरवारवालों में षड्यन्त्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है। लेकिन वह तजरबा कहाँ से लायेगा, जो उन ही से आता है ?

उन्होंने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक दिन की मुहलत मांगी और रुखसत हुए।

( ३ )

हबीब यज़दानी का लड़का नहीं, लड़की थी। उसका नाग उम्मतुल हबीब था। जिस वक यज़दानी और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो सड़को को उन कुल बारह साल की थी ; पर प्रकृति ने उसे बुद्धि और प्रतिभा के साथ विचार-स्वातन्त्र्य भी