देखू गा कौन तुम्हें तिही आँखों से देखता है। जब तक पढ़ता हूं, तभी तक तुम्हारे
चुरे दिन हैं। मानी ये स्नेह में डूबी हुई बात सुनकर पुर क्ति हो जाती और उसका
रोआनीमा गोकुल को आशीर्वाद देने लगता।
( २ )
आज ललिता का विवाह है। सवेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। पहनों की भनकार से घर गूंज रहा है। मानी भी मेहमानों को देख-देखकर खुश हो रही है। उसकी पर कोई छाभूषण नहीं है और न उसे सुन्दर कपड़े हो दिये गये हैं। फिर भी उसका मुख प्रसन्न है।
आधी रात हो गई थी। विवाह का मुहुर्त निकट आ गया। जनवासे से चढ़ावे को चीज आई। सभी औरतें उत्सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं। ललिता को भाषण पहिनाये जाने लगे। मान के हृदय में बड़ी इच्छा हुई कि जाकर बधू का देखे। अभी कल जो बालिका यौ उसे आज बधू वेश में देखने की इच्छा न रोक सकी। वह मुसकिराती हुई कमरे में घुसी। सहसा उसकी चची ने झिड़ककर कहा --- तुझे यहाँ किसने बुलाया था, निकल ना यहाँ से।
मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएँ सही थी , पर आज की वह मिड़की उसके हृदय में वाण की तरह चुभ गई। उसका मन उसे धिकारने लगा। तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्कार है। यहां सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्या जरूरत थी। वह चिसि- याई हुई कमरे से निकली और एकान्त में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी। सहसा होने पर उसकी इन्द्रनाथ से मुटभेद हो गई। इन्द्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था। वह भी न्यौवे में आया हुआ था। इस वक्त गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था। मानी को वह दो-एक बार देख चुका था और यह भी जानता था कि वहां उसके साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जाता है। ची को बातों की भनक उसके कान में भी पद गई थी। मानौ को ऊपर जाते देखकर वह उसके चित्त का भाव समझ गया और उसे सांत्वना देने के लिए ऊपर आया; मगर दरवाजा भीतर से बन्द था। उसने किवाड़ की दरार से भीतर झाका। मानी मेज के पास सड़ी रो रही थी।
उसने धीरे से कहा --- मानी द्वार खोल दो।
मानी उसको आवाज सुनकर कोने में छिप गई और गभीर स्वर में बोली --- क्या काम है ?