पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२१४
मानसरोवर

यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्मत्तों की तरह एक तरफ चळ खड़ा हुआ। जोर के झोंके चल रहे थे ; पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि सोस लेने के लिए इवा नहीं है।

( ७ )

एक सप्ताह बीत गया; पर गोकुल का कहीं पता नहीं। इन्द्रनाथ को बम्बई में एक जगह मिल गई थी। वह वहां चला गया था। वहाँ रहने का प्रान्ध करके वह अपनी माता को तार देगा और तब सास और बहू वहां चलो जायगी। वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इन्द्रनाथ घर छिपा होगा; पर जब वहाँ पता न चला तो उन्होंने सारे शहर में खोज पूछ शुरू की। जितने मिलनेवाले, मित्र, स्नेही, सम्बन्धी थे, सभी के घर गये ; पर सब जगह से साफ जवाव पाया। दिन भर दौड़- धूप कर शाम को घर आते तो स्त्री को आड़े हाथों लेते और कोसो लड़के को, पानी पी-पीकर कोसी। न जाने तुम्हें कभी बुद्धि आयेगी भी या नहीं। गई थी चुड़ेल, जाने देतो। एक बोझ सिर से टला। एक महर रख लो काम चल जायगा। जब वर न थी, तो घर क्या भूखों मरता था। विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है। हमारे बस की बात होतो तो इन विधवा- विवाह के पक्षपातियों के देश से निकाल देते, शाप देकर जला देते; लेकिन यह हमारे बस की बात नहीं। फिर तुमसे इतना भो न हो सका कि मुझसे तो पूछ लेती। मैं जो उचित समझता, करता। क्या तुमने समझा था मैं दफ्तर से लौटकर भाऊँगा ही नहीं, वहीं मेरो अत्येष्टि हो जायगी। बस लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खुम दिल खोलकर।

संध्या हो गई थी। वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में टहल रहे थे। रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था। इसी राक्षसी के कारण मेरे घर का सर्वनाश हुआ। न जाने किस बुरो साइत में आई कि घर को मिटाकर छोड़ा ? वह न आई होती, तो आज क्यों यह बुरे दिन देखने पढ़ते ! कितना होनहार कितना प्रतिभाशाली लड़का था। न जाने कहाँ गया।

एकाएक एक बुढ़िया उनके समीप आई और बोली --- बाबू साहब, यह खत लाई हूँ ले लीजिए।

वंशीधर ने लपककर वुढ़िया के हाथ से पत्र ले लिया। उनकी छाती आशा से