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मानसरोवर


खड़ी हो गई और चाचाजी की ओर बढ़ी। उनके चरणों पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गये और आँखें निकालकर बोले- मुझे मत छू, दूर रह, अभागिनी कहीं की। मुंह में कालिख लगाकर मुझे पत्र लिखती है। तुझे मौत नहीं आती ! तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । आज तक गोकुळ का पता नहीं है। तेरे हो कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूंग दलने को बैठो है। तेरे लिए क्या गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे ऐसो कुलमा, ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन तेरा गला घोट देता। अब मुझे अपनी भक्ति दिखलाने चली है ! तुम. जैसो पापिष्ठाओं का मरना हो अच्छा है, पृथ्वी का बोझ कम हो जायगा।

प्लेटफार्म पर सैकड़ों आदमियों को भोड़ लग गई थी, और वंशीधर निर्लज भाव से गालियों की बौछार कर रहे थे। किसो की समझ में न आता था, क्या माजरा है। पर मन में सब लाला को धिक्कार रहे थे।

मानी पाषाण-मूर्ति के समान खड़ी थी, मानो वहीं जम गई हो। उसका सारा अभिमान चूर-चूर हो गया। ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं समा जाऊँ, कोई वज्र गिरकर उसके जीवन-अधम जोवन-का अन्त कर दे। इतने आदमियों के सामने उसका पानो उतर गया ! उसकी आँखों से आंसू की एक बूंद भी न निकली। हृक्ष्य में आँसू न थे। उसकी जगह एक दावानल सा दहक रहा था जो मानों वेग से मस्तिष्क को ओर बढ़ता चला जाता था। ससार में कौन जीवन इतना अधम होगा !

'सास ने पुकारा --- बहू, अन्दर आ जाओ।

गाड़ी चली तो माता ने कहा --- ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा। मुझे तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि उसका मुँह नोंच लूँ।

मानी ने सिर ऊपर न उठाया।

माता फिर बोली --- न जाने इन सडियलों को कब बुद्धि आयेगो, अब तो मरने के दिन भी आ गये। पूछो, तेरा लड़का भाग गया तो क्या करे ; अगर ऐसे पापो न होते तो यह वज्र हो क्यों गिरता।

मानी ने फिर भी मुंह न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई हो न देता था।