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मानसरोवर


शंका हुई, यह द्वार किसने खोला ? कोई गादी में तो नहीं आया ! उसका जी पवमाने ला। उसने विवाह बन्द कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी। किससे पूछे ? डाकगाड़ी बन जाने कितनी देर में रुकेगी। कहती थी, बहुमरदानी गाड़ी में बैठ। मेरा कहना न माना। कहने लगी, अम्माँजी, आपको सोने की तकलीफ होगी यही आराम दे गई।

सहसा से खतरे की जंजीर की याद आई। उसने जोर-ज़ोर से कई बार जजोर खींची। कई मिनट के बाद गाड़ी रुकी। गार्ड आया। पड़ोस के कमरे से दो चार आदमी और भी आये। फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया। नीचे तख्ते को ध्यान से देखा। एक का कोई चिह्न न था। असबाब को जांच की। विस्तर, सदूक, संदकची बर्तन, सब मौजूद थे। ताले भी सबके बन्द थे। कोई चीन गायब न थी। अगर बाहर से कोई आदमी आता तो चलती गाड़ी से जाता कहाँ ? एक स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद जाना असम्भव था। सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुंचे कि मानो द्वार खोलकर बाहर झांकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी। गार्ड भला आदमी था। उसने नीचे उतरकर एक मील तक सनक के दोनों तरफ तलाश किया। मानी का कोई निशान न मिला। रात को इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता था। माताजी को कुछ लोग आग्रह पूर्वक एक मरदाने डब्बे में ले' गये। यह निश्चय हुआ कि माताजी भगळे स्टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाय। विपत्ति में हम पर-मुखापेक्षी हो जाते हैं। माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका। उनकी याचना से भरी हुई आँखें मानो सबसे कह रही थी-कोई मेरी बच्ची को खोज क्यों नहीं लाता ? हाय 1 अभी तो बेचारी की चूदरी भी नहीं मैली हुई। कैसे-कसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी ? कोई उस दुष्ट वशीधर से जाकर कहता क्यों नहीं - लो तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गई जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया क्या अब भी तेरी छाती नहीं जुड़ाती !

वृद्धा मैठी रो रही थी और गाड़ी अन्धकार को चीरती चली जाती थी।

( ११ )

रविवार का दिन था। सन्ध्या समय इद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने पर की छत पर बैठा हुआ था। आपस में हास-परिहास हो रहा था। मानी का आगमन इस परिहास का विषय था।