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मानसरोवर

इन्द्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा ; पर मुँह से कुछ बोले नहीं।

कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक, निस्पन्द बैठे रहे। एकाएक इन्द्रनाथ खड़े हो गये और बोले --- मैं इस गाड़ी से जाऊँगा।

बम्बई से नौ बजे रात को गाड़ी छूटती थी। दोनों मित्रों ने चटपट विस्तर आदि बाधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया दूसरे ने ट्रक। इन्द्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे पो; आशा रोती हुई पीछे।

( १२ )

एक सप्ताह गुजर गया था। लाला बोधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इन्द्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर , मानो वीत राग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृक्ष्य से निकली हुई आह मूर्तिमान हो गई हो ?

वंशीधर ने पूछा --- तुम तो मम्बई चले गये थे न ?

इन्द्रनाथ ने जवाब दिया --- जी हां, आज ही आया हूँ।

वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा --- गोकुल को तो तुम ले बीते !

इंद्रनाथ ने अपने अंगूठे को और ताकते हुए कहा-वह मेरे घर पर हैं।

वंशीधर के उदास मुख पर हर्ष का प्रकाश दौड़ गया। बोले--तो यहाँ क्यों नहीं आये ? तुमसे कहां उसकी भेट हुई? क्या बम्बई चला गया था ?

'जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गये।'

'तो जाकर लिवा लाओ न, जो किया अच्छा किया।'

यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे अन्दर पुलाया।

वह अन्दर गया तो माता ने उसे सिर से पांव तक देखा-तुम बीमार थे क्या भैया ! नेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है।

इन्द्रनाथ ने कुछ उत्तर न दिया।

गोकुल की माता ने लोटे का पानो रखकर कहा --- हाथ-मुँह धो डालो बेटा, गापुल है तो अच्छी तरह ? कहा रहा इतने दिन ? तब से सैकड़ों मन्नतें मान चाली। आशा या नहीं? .