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कायर


गया हो। वही मन्द वायु प्रबल वेग से पर्वत के मस्तक पर चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुंचती है। प्रेमा मन में सोच रहो ये माना, यह देह माता-पिता की है ; किन्तु आत्मा तो मेरी है। मेरी आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी देह से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह इस विषय में संकोच करना अनुचित ही नहीं, घातक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करे ? उसने सोचा, विवाह का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह तो देह का विक्रय है। आत्म-समर्पण क्या बिना प्रेम के भी हो सकता है ? इस कल्पना हो से किन जाने किस अपरिचित युवक से उसका व्याह हो जायगा, उसका हृदय विद्रोह कर उठा।

वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा --- मैं कल तुम्हारे प्रिन्सिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बढ़ी तारीफ कर रहे थे।

प्रेमा ने सरल भाव से कहा --- आप तो यो हो कहा करते हैं।

'नहीं, सच।'

यह कहते हुए उन्होंने अपनी मेज़ को दराज खोली और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तसवीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले-यह लड़का आई० सी० एम० इम्तहान प्रथम आया है। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?

बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका माधो थौ कि प्रेमा उनका आशय न समझ सके। लेकिन प्रेमा भाप गई। उसका मन तोर की भांति लक्ष्य पर जा पहुंचा। उसने बिना तसवीर को और देखे ही कहा नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना।

पिता ने बनावटो आश्चर्य में कहा --- क्या ? तुमने उसका नाम ही नहीं सुना ? आज के दैनिक-पत्र में उसका चित्र और जोवन-वृत्तान्त व्या है।

प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया --- होगा ; मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई महत्त्व नहीं समझती। मैं तो समम्तो हूँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते हैं। ये पल्ले सिरे के स्वार्थी होते हैं। आखिर उनका उद्दश्य इसके सिवा और क्या होता है कि अपने गरीब, निर्धन, दलित भाइयों पर शासन करें, और खून धन संचय करें। यह तो जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है।

इस आपत्ति में जलन मी, अन्याय था, निर्दयता पौं। पिताजी ने समझा था,