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अलग्योझा


कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा ? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा है। जिनको गोद में खेलाया वहीं अब मेरै पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डाँटता था, उन्हें आज कड़ी आँखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करू, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों का लेटे लेता है। जा, मुझे छोड़ दें, अभी मुझसे कुछ न खाया जायगा।

मुलिया मैं कसम रखा दूँगी, नहीं, चुपके से चले चलो।

रग्घू---देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे।

मुलिया---हमारा ही लहू पिये, जो खाने न उठे।

रग्घू ने कान पर हाथ रखकर कहा-यह तूने क्या किया मुलिया ? मैं तो उठ ही रहा था। चले खा लें। नहाने-धोने कौन जाय, लेकिन इतना कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ रोटिया खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे; पर यह दाग़ मेरे दिल से न मिटेगा।

मुलिया--- दाग-साग सब मिट जायगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं ही, उधर कैसी चैन की वसी बज रही है। वह तो मना ही रहो थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जायँ। अब वह पहले की-सी चाँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सत्ब गायब। अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं। रग्घू ने आहत स्वर में कहा-इसी बात की तो मुझे ग्रम है। काकी से मुझे ऐसी आसा न थी।

रग्घू खाने वैठा, तो कौर विष के घूट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती थी। पानी भी कठ के नीचे न उतरता था। दूध की तरफ़ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो।

रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरो की। रात भर उसका चित्त उद्विग्न रहा। एक अज्ञात शक्क उसके मन पर छाई हुई थी, जैसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पहा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।

वह दो जून भोजन करता था; पर जैसे शन्नु के घर। भोला को शोक-मग्न