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मानसरोवर

बूढ़े बाबूजी जितना ही दबते थे, उतना हो पण्डितजी बिगड़ते थे। यहाँ तक कि लालाजो अपना अपमान ज्यादा न सह सके। और अपनी तकदीर को कोसते हुए चले गये।

उसी वक्त केशव कालेज से आया। पण्डितजी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर कंठ से कहा --- सुना है, तुमने किसी बनिये की लड़को से अपना विवाह कर लिया है। यह खबर कहाँ तक सही है !

केशव ने अनजान बनकर पूछा --- आपसे किसने कहा ?

'किसी ने कहा। मैं पूछता हूँ, यह बात ठीक है, या नहीं ? अगर टीक है, और तुमने अपनी मर्यादा को डुबाना निश्चय कर लिया है, तो तुम्हारे लिए हमारे घर में कोई स्थान नहीं। तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा। मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी अपनी कमाई है, मुझे अख्तियार है कि मैं उसे जिसे चाहूँ, दे। तुम यह अनीति करके मेरे घर में कदम नहीं रख सकते।'

केशव पिता के स्वभाव से परिचित था। प्रेमा से उसे प्रेम था। वह गुप्त रूप से प्रेमा से विवाह कर लेना चाहता था। पाप हमेशा तो बैठे न रहेंगे। माता के स्नेह पर उसे विश्वास था। उस प्रेम को तरङ्ग में वह सारे कष्टों को झेलने के लिए तैयार मालूम होता था लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता है, और कदम पीछे हटा लेता है, वही दशा केशव की हुई। वह साधारण युवकों की तरह सिद्धान्तों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था, जवान से उनमें अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था, लेकिन इसके लिए यातनाएँ झेलने का सामर्थ्य उसमें न था। अगर वह अपनी जिद पर अड़ा, और पिता ने भी अपनी टेक रखो, तो उसका कहाँ ठिकाना लगेगा ? उसका जीवन ही नष्ट हो जायगा।

उसने दबी जबान से कहा --- जिसने आपसे यह कहा है, बिलकुल झूठ कहा है। पण्डितजी ने तीन नेत्रों से देखकर कहा-तो यह खबर बिलकुल गलत है ?

'जी हाँ, बिलकुल गलत।'

'तो तुम आज ही इस वक्त उस बनिए को खत लिख दो, और याद रखो कि अगर इस तरह की चर्चा फिर कभी उठी, तो मैं तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रुहूँगा। बस, जाओ।'

केशव और कुछ न कह सका। यह वहां से चला, तो ऐसा मालूम होता था कि पैरों में दम नहीं है।