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मानसरोवर


मूर्ति आँखों से न उतरतो थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराये, सिर झुकाये, मानों गो-हत्या की हो।

( ७ )

पाँच साल गुज़र गये। रग्घू अब दो लड़कों का जाप था। आँगन मैं दीवार खिंच गई को खेतों में मेड़े डाल दी गई थी, और बैल-बधिये बाँट लिये गये थे। केदार की उम्र अब सोलह साल की हो गई थी। उसने पढ़ना छोड़ दिया था और खेत का काम करता था। खुन्नू गाय चराता था। केवलं लछमन अब तक मदरसे जाता था। पन्ना और मुलिया दोनों एक दूसरे की सूरत से जलती थीं सुलिया के दोनों लड़के बहुधा पन्ना ही के पास रहते। वह उन्हें उबटन मलती, वही काजल लगात, वहीं गोद में लिये फिरती। अगर मुलिया के मुंह से झभी अनुग्रह का एक शब्द भी न निकलता। न पुन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करतीं, निब्र्याज भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ हो गये थे। लड़की खाना पका लेती थी। वह खुद ऊपर का काम-काज कर लेता। इसके विरुद्ध अघू अपने घर का अकेला था, वह भी दुबल, अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस बर्ष से अधिक न थो; लेकिन वाले खिचड़ो हो गये थे, कमर भी झुक चली थी। खाँसी ने जोर्ण कर रखा था। देखकर दया आती थी। और, खेती पसीने की वस्तु है। खेतों की जैसो सेवा होनी चाहिए, वह उससे न हो पातो फिर अच्छो फसल कहाँ से आतो। कुछ ऋण भी हो गया था। वह चिन्ता और भी मारे डालती थी। चाहिए तो यह था कि अब उसे कुछ आराम मिलता। इतने दिनों के निरन्तर परिश्रम के बाद सिर का बौक कुछ हल्का होता; लेकिन मुलिया को स्वार्थपरती और अदूरदर्शिता ने लहराती हुई खेती उजाड़ दी ; अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेंशन पा जाता, मजे से द्वार पर बैठा हुआ नारियल पीता। भाई काम करता, वह सलाह देता। महतो बना फिरता। कहीं किसी के झगड़े चुकाता, कहीं साधु-सन्त की सेवा करता ; पर वह अवसर हाथ से निकल गया। अब तो चिन्ताभार दिन-दिन बढ़ता जाता था।

आखिर उसे धीमा-धीमा ज्वर रहने लगा हृदय-शूल, चिन्ता, अड़े परिश्रम और अभाव का यही पुरस्कार है। पहले कुछ परवाह न की। समझो आप हो-आप अच्छ। हो जायगा ; मगर कमजोरी बढ़ने लगो, तो दवा को फिक्र हुई। जिसने जो बता दिया, खा लिया। डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामर्थ्य कहाँ और सामथ्य