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शिकार


आनन्द में डूबी हुई ; अब वह पिजरे के द्वार पर आकर पख फड़फड़ा रहो थी। पिंजरे का द्वार खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा ?

रसोइये ने पूछा --- क्या सरकार अकेले आई हैं ?

कुँअर साहब ने कोमल कण्ठ से कहा --- हाँ जी, और क्या। इतने आदमो है। किसी को साथ न लिया। बाराम से रेलगाड़ीसे आ सकती थी। यहां से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो, और देखो, कुछ खाने को बना लो।

रसोइये ने ठकुरसोहाती की --- सौ कोस की दौड़ बहुत होतो है सरकार। भारत दिन बैठे-बैठे बीत गया।

कुँअर साहब ने वसुधा के सिर के नोचे तकिया सीधा करके कहा-कचूमर तो हम लोगों का निकल जाता है। दो दिन तक कमर नहीं सौधो होती, फिर इनकी क्या बात है। ऐसो बेहूदा सड़क दुनिया में न होगी।

यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे।

( ४ )

वसुधा का ज्वर इकोस दिन तक न उतरा। घर से डाक्टर आये। दोनों बालका मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मगल हो गया।

वसुधा खाट पर पड़े-पड़े कुंभर साहब की शुश्रूषाओं में अलौकिक आनन्द और सन्तोष का अनुभव किया करती। वह जो पहर दिन चढ़े तक सोने के आदो थे, कितने सवेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा-सी बातों का कितना ख्याल रखते। परा देर के लिए स्नान और भोजन करने जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या सी कर रहे थे। उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर वह स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते थे।

एक दिन वसुधा ने कहा --- तुम मान-कल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? मैं तो शिकार खेलने हो आई थी मगर न जाने किस बुरी साइत से चलो कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गई। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा आईने में अपनी सूरत तो देखो।

कुंअर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान हो न आया था। इसको