चर्चा हो न होती थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बंद था। एक बार
साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँअर साहब ने उसको भोर
कुछ ऐसी कड़वी आँखों से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने हो में उन्हें आनन्द
मिलता था। उनका भोग-विलास जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा
को एक हथेली पर अंगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे। शिकार' की बात किसी
और के मुंह से सुनो होतो, तो फिर उनी आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुंह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दुःख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक सममती
है। आमर्ष भरे स्वर में बोले --- हाँ, शिकार खेलने का इपसे अच्छा और कौन
अवसर मिलेगा।
वसुधा ने आग्रह किया-मैं तो अब अच्छी हूँ, सच ! देखो ( आईने को ओर दिखाकर ) मेरे चेहरे पर पीलापन नहीं रहा। तुम अलपत्ता बोमार से होते जाते हो। जरा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमो सचमुच ओमार हो जाता है।
वसुधा ने तो साधारण-सी बात कही थी, पर कुँअर साहब के हृदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार के खन्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यो न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आतो और क्यों बीमार पढ़ती उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दुःख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे।
वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा --- अब को तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूं। उनमें जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लँगी। अब की मैं भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलेंगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं --- मानूंगी नहीं। बहाने मत करने लगना।
अपने शिकारी तोहफे दिखाने का कुंअर साहब को मरज था। सैकड़ों ही साले
जमा कर रखीं थीं। उनके कई कमरों में फर्श, गद्दे, कोच, कुर्सियां, मोढ़ें, सब खालीं
हो के थे। औढ़ना और बिछौना भी खाली ही का था। बाघम्बरों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वही सूट पहनते थे। भव की भी बहुत से सींग, सिर, पंजे,
खाले जमा कर रखी थीं। वसुधा का इन चीजों से अवश्य मनोरंजन होगा। यह न