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शिकार


पहले की भांति उसका वचित हृदय अशुभ कल्पनाओं से त्रस्त न था। अब उसमें विश्वास था, वल था, अनुराग था।

( ६ )

कई दिनों के बाद वसुधा की साध पूरी हुई। कुंअर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने पर रालो हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह जिसने इधर एक महीने से आस-पास के गांवों में तहलका मचा दिया था।

चारों तरफ अन्धकार था, ऐसा सचन कि पृथ्वो उसके भार से कराहतो हुई जान पड़ती थी। कुंअर साइव और वसुधा एक ऊँचे पचान पर बन्दूकें लिये, दम साधे थे। यह बहुत भयंकर जन्तु था। अभी पिछली रात को वह एक सोते आदमो को खेत में मचान पर से खौचकर ले भागा था। उसको चालाकी पर लोग दाँतों अंगुली दबाते थे। मचान इतना ऊँचा था कि चौता उछलकर न पहुँच सकता था। हाँ, उसने यह देख लिया कि वह आदमो मचान पर बाहर की तरफ सिर किये सो रहा है। दुष्ट को एक चाल सूझी। वह पास के गांव में गया और वहाँ से एक लषा माँस उठा लाया। बस के एक सिरे को उपने दांतों से कुचला और जब उसकी। चीसी बन गई, तो उसे न जाने भागले पजों मा दाँतों से उठाकर सोनेवाले आदमी के बालों में फिराने लगा। यह जानता था बाल बौस के रेशों में फंस जायेंगे। एक झटके में वह अभागा आदमी नीचे आ रहा। इसी मानुस-मक्षो चोते की घात में दोनों शिकारी बैठे हुए थे। नीचे कुछ दूर पर भैपा बांध दिया गया था और शेर के आने की राह देखी जा रही थी। कैंसर साहब शात थे; पर बसुधा को छाती धक रही थी। जरा-सा पत्ता भो-खड़कता, तो वह चौंक पहतो और वन्दक सौधो करने के बदले चौंककर कुंअर साहब से चिमट जाती। कुँअर साहव बीच-बीच में उसको हिम्मत घंधाते जाते थे।

'ज्योहो भैसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूंगा। तुम्हारी गोलो को नौबत हो न आने पावेगी।'

वसुधा ने सिहरकर कहा --- और जो कहों निशाना चूक गया तो उछलेगा ?

'तो फिर दूसरो गोली चलेगी। तोनों बन्दकं तो भरो तैयार रखो हैं। तुम्हारा जो घबड़ाता तो नहीं ?

'बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ. पहला मेरा निशाना होता'