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शिकार

( ४ )

तीन घटों के बाद वसुधा को मूर्च्छा टूटी। उसको चेतना अब भी भय-प्रद परिस्थितियों में विचर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते माखें खोली। कुँअर साहब ने पूछा --- कैसा जी है प्रिये !

वसुधा ने उनकी रक्षा के लिए दोनों हार्थों का घेरा बनाते हुए कहा --- वहाँ से हट जाओ। ऐसा न हो, झपट पड़े।

कुँअर साहब ने हँसकर कहा --- शेर का का ठण्डा हो गया। वह बरामदे में पड़ा है। ऐसे डील-ौल का और इतना भयकर सिंह मैंने नहीं देखा। वसुधा --- तुम्हें चोट तो नहीं आई?

कुँअर --- बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ी। पैरों में बड़ी चोट आई होगी। तुम जीतो कैसे बचों, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनो ऊँचाई से कमो न कह सकता।

वसुधा ने चकित होकर कहा --- मैं ! मैं कहाँ कूदी ? शेर मचान पर आया, इतना याद है। इसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ याद नहीं।

कुंअर को भी विस्मय हुआ-वाह ! तुमने उस पर दो गोलियां चलाई। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ी और उसके मुंह में रिवाल्वर को नलो ढूंस दो। वह वहीं ठण्डा हो गया। बड़ा चेहया जानवर था; अगर तुम चूक जातो, तो वह नीचे आते हो मुझ पर पर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भो न थो। बन्धक हाथ से छुटकर दूसरी तरफ गिर गई थी। अंधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रसाद से इस वक्त मैं यहाँ खदा हूँ। तुमने मुझे प्राणदान दिया।

दूसरे दिन प्रातः काल यहां से कूच हुआ।

सो घर वसुधा को फाहे साता था, उसमें आज साकर ऐसा भानन्द माया, जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होता यो। जिन नौकरों और लौंडियों से वह महीनों से सोधे मुंह न बोलो थो, उनसे वह भाज हंस हंसकर फुशल पूठती और गले मिकती थो, जैसे अपनो पिछलो इखाइयों को पटौती कर रही हो।

सन्ध्या का सूर्य आकाश के स्वर्ण-सागर में अपनी नौका सेता हुआ वजा जा रहा था। वसुधा तिकी के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लपो। उस