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अलग्योझा


भी होतो, तो रुपये खर्च कर देने के सिवा और नतो जा ही क्या था। जीर्ण ज्वर की औषधि आम हैं और पुष्टिकारक भोजन। न वह वसन्तुमालती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलवर्धक भोजन कर सश्ता था, कमज़ोरी बढ़ती ही गई।

पन्ना को अवसर मिलता तो वह आकर उसे तमलो देती। लेकिन उसके लड़के अव रश्बू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करते, उसका और मजाक उड़ाते भैया समझते थे कि हम लोगों से अलग होकर सोने की ईंट रख लेंगे। भाभी भी समझती थी, सोने से लद जाऊँगी। अव देखें, कौन पूछता है। सिसकसिसकर त मरें, त कह देना बहुत ‘हाय ! हाय' भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे, जितना हो सके। यह नहीं कि रुपये के लिए जान ही दे दें।

पन्ना कहती---रग्घू बेचारे का कौन दोष है।

कैदार कहता---चल, मैं खूब समझता हूँ भैया की जगह मैं होता, तो डडे से बात करता। संजाल थी कि औरत यों ज़िद करती। वह सब भैया की चाल थी। सबै सधो-बदी बात थी।

आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अन्त कर दिया।

अन्त समय उसने केदार को बुलाया था ; पर केदार को ऊख में पानी देना था। डरा, कही दवा के लिए न भेज दें। बहाना बता दिया।

( ८ )

मुलिया का जीवन अन्धकारमय हो गया। जिस भूमि पर उसने मन्सू को दीवार खड़ी की थी, वह नीचे से खिसक गई थी। जिस खूटे के, बल पर वह उछल रही थी, वह उखड़ गया था। गाँववालों ने कहना शुरू किया, ईश्वर ने कसा तत्काल दड दिया बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करतो गाँव में किसी की में ह दिखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मालूम होता था 'मारे घमढे के वरती पर पाँव न रखती थी, आखिर सजा मिल गई कि नहीं ' अब इस घर मे कैसे निबाह होगा ? वह किसके सहारे रहेगी ? किसके बल पर खेती होगी। बेचार उघू वोमार था, दुर्वल था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़कर पैठ जाती और ज़रा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी,