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सुभागी

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान् को भी तो प्रेम है। कोई सुभागी का बखान न करे, इसलिए वह अनायास ही उसे डाँटती रहती थी। बखान से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न था, भय था—नज़र का! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्न में विधवा हो गई?

घर में कुहराम मचा हुआ था। लक्ष्मी पछाड़े खाती थी। तुलसी सिर पीटते थे। उन्हें रोते देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती—क्यों रोती हो अम्मा, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोती हो? उसकी भोली बातें सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी—ईश्वर, तुम्हारी यही लीला है। जो खेल खेलते हो वह दूसरों को दुख देकर! ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे, तो उसे पागलखाने भेजते हैं, मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दण्ड नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग दयालु कहते हैं। यही तुम्हारी दया है।

और सुभागी क्या सोच रही थी? उसके पास कोठरी-भर रुपये होते, तो वह उन्हे छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चली जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती, दादा जब बाकी माँगने आते, तो चट रुपये निकालकर दे देती, अम्माँ-दादा कितने खुश होते!

( २ )

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की का कहीं घर कर दो। जवान लड़की का यों फिरना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई निंदा नहीं है, तो क्यों सोच-विचार करते हो?