तुलसी ने कहा --- भाई, मैं तो तैयार हूँ; लेकिन जब सुभागी भी माने। वह तो किसी तरह राजी नहीं होती।
हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा --- बेटी, हम तेरे ही भले को कहते हैं। मां—बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठो रहोगी ?
सुभागी ने सिर झुकाकर कहा --- चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ ; लेकिन मेरा मन घर करने को नहीं कहता। मुझे आराम को चिता नहीं है। मैं सब कुछ मेलने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह सिर-आंखों के वल करूंँगी। मगर घर करने को मुमसे न कहो। जब मेरो चाल-कुचाल देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर मैं सच्चे बाप की बेटी हूँगी तो बात को भी पक्को हूँगी। फिर लजा रखनेवाले तो भगवान हैं, मेरो क्या हस्ती है कि अभी कुछ कहूँ।
उजड रामू बोला --- तुम अगर सोचती हो कि भैया कमायेंगे और मैं बैठो मौज करूंँगी, तो इस भरोसे न रहना। यहाँ किसी ने जनम-भर का ठीका नहीं लिया है।
रामू को दुल्हन रामू से भो दो अंगुल ऊँची थी। मटककर बोली- हमने किसो का करज थोड़े हो खाया है कि जनम-मर बैठे भरा करें। यहां तो खाने को भी महीन चाहिए, पहनने को भी महीन चाहिए, यह हमारे बूते की बात नहीं है। सुभागी ने गर्व से भरे हुए स्वर में कहा --- भाभी, मैंने तो तुम्हारा भासरा कभी नहीं छिया और भगवान् ने चाहा तो कभी करूंगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिंता न करो।
रामू की दुल्हन को जब मालूम हो गया कि सुभागी धर न करेगी, तो और भी उसके सिर हो गई। हमेशा एक-न-एक खुचड़ लगाये रहती। उसे सुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह वेचारी पहर रात से उठकर कूटने पीसने में ला जातो, चौका-बरतन करतो, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालतो, कभी उसकी देह दवाती। तुलसी चिलम के भक्त थे। उन्हें बार- बार चिलम पिलाती। जहां तक अपना घश चलता, मां-बाप को कोई काम न करने देतो। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी हैं, यह न काम करेंगे, तो गृहस्थी कैसे चलेगी।
मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्मां और दादा को तिनका तक नहीं उठाने