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सुभागी


देती और मुझे पीसना चाहती है। यहाँ तक कि एक दिन वह जामे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला-अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नहीं अलग कर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने बल पर काम करे।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके मा-पाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले --- क्या है रामू, उस सरोजिन से क्यों लाते हो?

रामू पास आकर बोला --- तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था।

तुलसी --- जब तक मैं जीता हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।

रामू --- आपकी बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले बाँधकर रखिए। मुम्हसे तो नहीं सहा जाता।

तुलसी --- अच्छी बात है। मगर तुम्हारी यही मरजो है, तो यही होगा। मैं पल गांव के आदमियों को बुलाकर बटवारा कर देगा। तुम चाहे छूट बाव, सुभागी लही छूट सकती।

रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आई, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च को। पुत्र को रत्न समझा था, पुत्री को पूर्व जन्म के पापों का दण्ड। वह रत्न कितना कठोर निकला और वह दण्ड कितना अगलमय।

( ३ )

दूसरे दिन महतो ने गांव के आदमियों को जमा करके कहा-पंचो, अब रामू का और मेरा एक में निबाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ़ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किचकिच अच्छी नहीं।

गांव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने राम को बुलाकर पूछा- क्यों जो, तुम अपने मां-बाप से अलग रहना चाहते हो ? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से मां-बाप को अलग किये देते हो? राम ! राम !